रूप मातु को अधिक सुहावे ।दरश करत जन अति सुख पावे ॥
तुम संसार शक्ति लय कीना । पालन हेतु अन्न धन दीना ॥
अन्नपूर्णा तुम जग पाला । तुम ही आदि सुन्दरी बाला ॥
प्रलयकाल सब नाशनहारी । तुम गौरी शिवशंकर प्यारी ॥
शिव योगी तुम्हरे गुन गावें । ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें ॥
रूप सरस्वती का तुम धारा । दे सुबुधि ऋषि-मुनिन उबारा ॥
धर्यो रूप नरसिंह को अम्बा । परगट भईं फाड़ कर खम्बा ॥
रक्षा करि प्रहलाद बचायो । हिरनाकुश को स्वर्ग पठायो ॥
लक्ष्मी रूप धरो जग जानी । श्री नारायण अंग समानी ॥
क्षीरसिन्धु में करत बिलासा । दयासिन्धु दीजै मन आसा ॥
हिंगलाज में तुम्हीं भवानी । महिमा अमित न जात बखानी ॥
मातंगी धूमावति माता । भुवनेश्वरि बगला सुखदाता ॥
श्री भैरव तारा जग-तारिणि । छिन्न-भाल भव-दुःख निवारिणि ॥
केहरि वाहन सोह भवानी । लांगुर वीर चलत अगवानी ॥
कर में खप्पर-खड्ग बिराजै । जाको देख काल डर भाजै ॥
सोहै अस्त्र विविध त्रिशूला । जाते उठत शत्रु हिय शूला ॥
नगरकोट में तुम्हीं बिराजत । तिहूँ लोक में डंका बाजत ॥
शुम्भ निशुम्भ दैत्य तुम मारे । रक्तबीज-संखन संहारे ॥
महिषासुर दानव अभिमानी । जेहि अघ भार मही अकुलानी ॥
रूप कराल कालिका धारा । सेन सहित तुम तेहि संहारा ॥
परी गाढ़ सन्तन पर जब-जब । भई सहाय मातु तुम तब तब ॥
अमर पुरी अरू बासव लोका । तव महिमा सब रहें अशोका ॥
ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी । तुम्हें सदा पूजें नर-नारी ॥
प्रेम भक्ति से जो यश गावै । दुख-दारिद्र निकट नहिं आवै ॥
ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई । जन्म-मरण ता कौ छुटि जाई ॥
योगी सुर-मुनि कहत पुकारी । योग न हो बिन शक्ति तुम्हारी ॥
शंकर आचारज तप कीनो । काम-क्रोध जीति तिन लीनो ॥
निशिदिन ध्यान धरो शंकर को । अति श्रद्धा नहिं सुमिरो तुमको ॥
शक्ति रूप को मरम न पायो । शक्ति गई तब मन पछितायो ॥
शरणागत ह्वै कीर्ति बखानी । जय जय जय जगदम्ब भवानी ॥
भई प्रसन्न आदि जगदम्बा । दई शक्ति नहिं कीन विलम्बा ॥
मोको मातु कष्ट अति घेरो । तुम बिन कौन हरे दुख मेरो ॥
आशा तृष्णा निपट सतावैं । मोह-मदादिक सब बिनसावैं ॥
शत्रु नाश कीजै महरानी । सुमिरौं इकचित तुम्हें भवानी ॥
करहु कृपा हे मातु दयाला । ऋद्धि-सिद्धि दै करहु निहाला ॥
जब लग जिओं दया फल पावौं । तुम्हरो यश मैं सदा सुनावौं ॥
दुर्गा चालीसा जो कोई गावै । सब सुख भोग परमपद पावै ॥
देवीदास शरण निज जानी । करहु कृपा जगदम्ब भवानी ॥
डिसक्लेमर
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