संविधान की छठी अनुसूची में शामिल क्यों होना चाहता है लद्दाख? स्पेशल स्टेटस मिला तो क्या-क्या बदल जाएगा?
लद्दाख को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग को लेकर स्थानीय लोग प्रदर्शन कर रहे हैं. वे केंद्र सरकार से नाराज हैं. वे चाहते हैं कि सरकार उनकी मांगों को जल्द से जल्द पूरा करे. पहले लद्दाख जम्मू-कश्मीर का हिस्सा था. फिर5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया गया. अब ऐसा क्या हुआ है कि लद्दाख संविधान की छठी अनुसूची में शामिल होना चाहता है? आइए जानते हैं कि संविधान की छठी अनुसूची क्या है और लद्दाख के लोग इसे इतना जरूरी क्यों मान रहे हैं?
स्वतंत्र केंद्र शासित राज्य बनने के बाद लद्दाख के लोग बहुत खुश थे. उन्हें लगा था कि अब लद्दाख का विकास तेजी से होगा, जो जम्मू-कश्मीर के साथ होने की वजह से नहीं हो पा रहा था. लेकिन, धीरे-धीरे उनके सपने टूटने लगे. हर बात के लिए उन्हें केंद्र सरकार की ओर देखना पड़ रहा है. इसके लिए माध्यम के रूप में लेफ्टिनेंट गवर्नर और एक एमपी ही हैं. अब उन्हें लग रहा है कि उनके हाथ से सब कुछ छिनता जा रहा है. ऐसे में धीरे-धीरे लोग एकजुट हुए और अपने अधिकारों को लेकर धरना-प्रदर्शन शुरू कर दिया.
इसलिए छठी अनुसूची में शामिल होना चाहते हैं लद्दाख के लोग
छठी अनुसूची के किसी भी इलाके में अलग तरह की स्वायत्ता होती है. संविधान के अनुच्छेद 244(2) और अनुच्छेद 275 (1) में विशेष व्यवस्था दी गई है. जम्मू-कश्मीर राज्य का हिस्सा होने पर लद्दाख के पास यह विशेष अधिकार था. पूर्वोत्तर के कई राज्यों असम, त्रिपुरा, मेघालय, मिजोरम में आज भी यह विशेष व्यवस्था लागू है. इसका फायदा यह है कि यहां इनका अपना प्रशासन है. इसे लागू होने के बाद खास इलाके में कामकाज को सामान्य बनाने के इरादे से स्वायत्त जिले बनाए जा सकते हैं. इनमें 30 सदस्य रखे जाते हैं. चार सदस्य राज्यपाल नामित करते हैं. बाकी स्थानीय जनता से चुनकर आते हैं. इन जिलों में बिना जिला पंचायत की अनुमति के कुछ नहीं हो सकता. यह सब तभी संभव है जब केंद्र सरकार इन्हें संविधान के मुताबिक यह अधिकार देगी.
नई व्यवस्था में लद्दाख से एक भी विधायक नहीं
केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद जम्मू-कश्मीर में तो विधानसभा बची हुई है लेकिन लद्दाख से विधायक नहीं चुने जाने का प्रावधान किया गया है. पहले यहां से चार एमएलए चुनकर जम्मू-कश्मीर विधान सभा में लद्दाख का प्रतिनिधित्व करते थे. लोगों के आक्रोश का एक बड़ा कारण यह भी है. इनका आरोप है कि अब उनकी बात सरकार तक पहुंचाने का कोई उचित माध्यम नहीं है. सरकार ने जितने वायदे किए थे, सब बेदम साबित हुए. आरोप है कि अब तो भाजपा के जिम्मेदार लोग इस आंदोलन को ही खारिज कर रहे हैं.
सरकारी नौकरियों का भारी संकट
जब से नई व्यवस्था लागू हुई तब से सरकारी नौकरियों का संकट बढ़ गया है. पहले जम्मू-कश्मीर पब्लिक सर्विस कमीशन के मध्य से अफसरों की भर्तियाँ होती थीं तो लद्दाख को भी मौका मिलता था. आंदोलनकारियों का आरोप है कि बीते पांच साल में राजपत्रित पदों पर एक भी भर्ती लद्दाख से नहीं हुई है. गैर-राजपत्रित पदों पर छिटपुट भर्तियों की जानकारी जरूर सामने आई है. पर, लद्दाख में बेरोजगारी बढ़ी है. पढे-लिखे उच्च शिक्षित लोग छोटे-छोटे व्यापार करने को मजबूर हैं. बेहद कम आबादी होने की वजह से बिक्री न के बराबर होती है. दुकानें बंद करने की मजबूरी आन पड़ी है.
सरकार मांगें मान ले तो क्या-क्या बदल जाएगा?
अगर केंद्र सरकार आंदोलनकारियों की मांगें माँ लेती है तो लद्दाख में काफी कुछ बदल जाएगा. मांग है कि लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्ज मिले, जिससे वे अपने लोगों के माध्यम से अपने हक की माँग कर सकें. लेह और करगिल को अलग-अलग संसदीय क्षेत्र का दर्जा दिया जाए. स्वायत्त जिले बनाने का अधिकार मिलने के बाद जिला परिषद के पास असीमित अधिकार आ जाएंगे, जो अभी नहीं है. भूमि, जल, जंगल, कृषि, ग्राम परिषद, स्वास्थ्य, पुलिस जैसी व्यवस्था जिला परिषद को रिपोर्ट करेगी. यह कमेटी नियम-कानून बना सकेगी. यह सब होने के बाद काफी कुछ लद्दाख के हक में होगा. स्थानीय लोग अपने हिसाब से राज्य का विकास कर पाएंगे. फैसले ले पाएंगे.
मांगें मान लेना एकदम आसान नहीं
हालांकि, यह मांग मान लेना सरकार के लिए एकदम आसान नहीं है. इसमें बड़ी रकम खर्च होगी. लद्दाख में राजस्व की संभावना बेहद क्षीण है. पर्यटन ही यहां का एक मात्र व्यवसाय है. हां, सरकार अगर राजस्व के पहलू को छोड़ दे तो यह इलाका सामरिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है. पाकिस्तान-चीन की संवेदनशील सीमाएं यहाँ से लगती हैं. ऐसे में इसे राज्य का दर्जा देने को यही नजरिया रखना होगा, तभी यह संभव है. अन्यथा, तीन लाख की आबादी का यह इलाका वोट के हिसाब से तो बिल्कुल महत्वपूर्ण नहीं है.
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