शिबू सोरेन रिश्वतकांड से लेकर सीता सोरेन तक….समझिए वोट के बदले नोट का मामला जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने पलटा 1998 का फैसला
अगर कोई विधायक या सांसद पैसे लेकर सदन में भाषण या वोट दे तो क्या उस पर मुकदमा चलेगा या फिर इस तरह के रिश्वत वाले मामले में उसको बतौर जनप्रतिनिधि हासिल प्रिविलेज (विशेषाधिकार) के तहत कानूनी कार्रवाई से छूट होगी? 7 जजों की संविधान पीठ ने आज इस बेहद अहम सवाल पर सर्वसम्मति से फैसला सुना दिया. बेंच ने 1998 के फैसले (पीवी नरसिम्हा राव मामला) को पलट दिया और साफ तौर पर कहा कि ‘रिश्वत मामलों’ में MP-MLA मुकदमे से नहीं बच सकते.
कोर्ट का ये फैसला ‘सीता सोरेन बनाम भारत सरकार’ मामले में आया है. अदालत ने संविधान के अनुच्छेद 105(2) और 194(2) के तहत सांसदों और विधायकों को हासिल विशेषाधिकार की नए सिरे से व्याख्या की है और 1998 के नरसिम्हा राव जजमेंट के दौरान इन दोनों अनुच्छेदों की व्याख्या को गलत माना है. ‘राजनीति में नैतिकता’ के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने इसको बेहद महत्त्वपूर्ण मामला माना था.
पिछले साल 5 अक्टूबर को सर्वोच्च अदालत ने दो दिन की सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया था. CJI डी वाई चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस एएस बोपन्ना, जस्टिस एमएम सुंदरेश, जस्टिस पीएस नरसिम्हा, जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने इस केस की सुनवाई की थी और तकरीबन पांच महीने बाद आज फैसला सुना दिया.
इस मसले पर 1993 से लेकर अब तक तकरीबन 30 बरस चली अदालती कार्रवाई चली. इसमें एक कॉमन कड़ी झारखंड मुक्ति मोर्चा और शिबू सोरेन का परिवार रहा. 1998 के फैसले ने जहां रिश्वत कांड में शिबू सोरेन की राह आसान कर दी थी तो सुप्रीम कोर्ट के आज के फैसले नेउनकी बहू सीता सोरेन के लिए मुश्किल खड़ी कर दी है.
आइये शिबू सोरेन और सीता सोरेन वाले दोनों मामलों को एक-एक कर समझते हैं जो इस पूरे केस के आधार हैं.
शिबू सोरेन और 1998 का फैसला
1991 का आम चुनाव हुआ. परिणामों में कांग्रेस पार्टी सबसे बड़ी राजनीतिक दल के तौर पर उभरी. नरसिम्हा राव की सरकार बनी. पर जुलाई 1993 के मॉनसून सत्र के दौरान राव की सरकार के खिलाफ सदन में अविश्वास प्रस्ताव लाया गया. शिबू सोरेन और उनकी पार्टी के चार सांसदों पर सनसनीखेज आरोप लगे कि उन्होंने रिश्वत लेकर लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव के खिलाफ वोटिंग की.
सीबीआई ने इन सांसदों के खिलाफ जांच शुरू किया. इधर शिबू सोरेन अदालत गए और बतौर सांसद विशेषाधिकार होने की बात कही. आम जबान में इसको सदन में ‘वोट के बदले नोट’ का मामला कहा जाता रहा. सोरेन ने दलील दी कि संविधान के अनुच्छेद 105(2) के तहत उनको ऐसे मुकदमों से छूट है. ‘पीवी नरसिम्हा राव बनाम सीबीआई’ नाम से सुने गए इस केस में सर्वोच्च अदालत ने 1998 में फैसला सुनाया.
3:2 की बहुमत से पांच जजों की पीठ ने तब ये तय किया था कि सांसद पैसे लेकर सदन में वोट या भाषण भी अगर दें तो उनको आपराधिक मुकदमे से छूट होगी. अनुच्छेद 105 (2) और 194 (2) की व्याख्या करते हुए अदालत ने सोरेन और दूसरे सांसदों के खिलाफ केस को रद्द कर दिया. अदालत ने तब कहा कि अनुच्छेद 105(2) और अनुच्छेद 194(2) का मकसद है कि संसद और राज्य की विधानसभाओं के सदस्य बगैर किसी चिंता या डर के स्वतंत्र माहौल में भाषण या फिर वोट दे सकें. खैर ये फैसला तो हो गया. अब आते हैं इसके दूसरे सिरे पर.
सीता सोरेन मामला और सुप्रीम कोर्ट
ये मामला 2012 राज्यसभा चुनाव का है. झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की भाभी सीता सोरेन तब जामा सीट से विधायक थीं. सीता सोरेन पर आरोप लगा कि उन्होंने चुनाव में वोट देने के लिए रिश्वत ली. आपराधिक मामला दर्ज हुआ. सीता ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया और मामला रद्द करने की मांग की मगर अपील यहां खारिज हो गई. 17 फरवरी, 2014 का वो आदेश था जब रांची हाईकोर्ट ने आपराधिक मामले को रद्द करने से इनकार कर दिया.
हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ सीता सोरेन ने सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई और 1998 के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि जिस तरह उनके ससुर को कानूनी कार्रवाई से छूट मिली थी, देश का संवैधानिक प्रावधान उन्हें भी सदन में हासिल विशेषाधिकार के तहत मुकदमेबाजी से छूट देती है. पिछले साल 20 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने मुकदमेबाजी से छूट वाले 1998 के फैसले पर फिर से विचार करने की बात की.
1998 का फैसला चूंकि 3:2 की बहुमत से पांच जजों की बेंच ने सुनाया था. इसलिए उस फैसले पर पुनर्विचार कोई बड़ी बेंच ही कर सकती थी. लिहाजा 7 जजों की बेंच का गठन हुआ और उसने अगले ही महीने सुनवाई पूरी कर ली. इस दौरान भारत सरकार का पक्ष सुप्रीम कोर्ट में अटॉर्नी जनरल, सॉलिसिटर जनरल ने रखा जबकि अदालत की मदद के लिए एमिकस क्यूरी के तौर पर पीएस पटवालिया पेश हुए.
अब यहां से आगे क्या?
आज सर्वोच्च अदालत ने अपने ऐतिहासिक फैसले में न सिर्फ सीता सोरेन के तर्कों को गलत माना है बल्कि 1998 के पांच जजों के फैसले को भी पलट दिया है.कोर्ट का 1998 के फैसले को पलट देना सीता सोरेन समेत और कई जनप्रतिनिधियों की राजनीतिक भविष्य पर असर डाल सकता है.
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