राष्ट्र चंडिका, ‘‘होली कब है? कब है होली‘‘ सत्तर के दशक की मशहूर फिल्म ‘शोले‘ में डाकू गब्बर सिंह के किरदार को जीवंत करने वाले अमजद खान के मुंह से यह डायलाग सुनकर उस वक्त के लोगों का होली का मजा अवश्य ही किरकिरा हुआ होगा, किन्तु होली एक पर्व है उल्लास का। उल्लास और जोश चहुं ओर एक जैसा ही होता है, बस नाम और मनाने का तरीका कुछ जुदा सा है। देश के विभिन्न इलाको में अगर जाया जाए तो होली के अलग अलग नाम, रूप और रंग सामने आए बिना नहीं रहेंगे।
होली वैसे तो रंगों का त्योहार है। बसंत के आगाज के साथ ही होली का अपना अलग अनूठा आनंद है। होली के हुरियारों को इस दिन हर मामले में सामाजिक तौर पर अघोषित छूट प्रदान हो जाती है। पिछले दो तीन दशकों में हुरियारों ने समाजिक तौर पर मिलने वाली इस छूट का बेजा इस्तेमाल भी आरंभ कर दिया है। अब तो प्राकृतिक रंगों के बजाए शरीर को नुकसान पहुंचाने वाले केमिकल्स का इस्तेमाल कर रंग बनाए जा रहे हैं।
याद पड़ता है कि किस कदर टेसू के फूलों को एकत्र कर घरों में ही रंगों का निर्माण किया जाता था। कवियों द्वारा भी होली के इर्द गिर्द खिलने वाले टेसू के फूलों की तुलना दहकते अंगारों से की जाती रही है। होली के साथ ही पतझड का आगाज होता है। आज तो होली का इंतजार नशैलों को होता है। शराब, भांग, चरस, अफीम, गांजा आदि के नशे में धुत्त लोग अश्लील गालियां देना होली की परंपरा मान चुके हैं। होलिका दहन पर प्रहलाद और होलिका की कहनी से तो सभी वाकिफ ही हैं।