कैसो है देश निगोड़ा सबजन होली या ब्रज होरा, मैं जमुना जल भरन जात ही देख रूप मेरा गोरा
मोते कहे चलो कुन्जन में तनक तनक से छोरा परे आंखिन में डोरा कैसा ये देश निगोड़ा।
सचमुच यह देश निगोड़ा है जहां बसन्त पंचमी के आते ही होली के डांडे गढ़ जाते हैं और यह होली का आयोजन फागुन पूर्णिमा तक चलता ही रहता है। दाऊजी के हुरंगे के बाद भी समूचे ब्रज मण्डल में होली का उल्लास सिर चढ़ कर बोलता है। यहां कि ग्वालिनें समूचे वर्ष भर जब मर्यादा, शालीनता, सभ्यता और संस्कृति के विभिन्न आयामांे को संजोय हुए परम्परागत परिधान में दिखाई देती हैं वहीं होली के अवसर पर उनमें उल्लास, उमंग, उत्साह और ठिठोरी करने की नई भाग-भंगिमाएं देखने को मिलती हैं तो यहां आने वाले दर्शनार्थी उसे देखकर भौंचक्के रह जाते हैं। बरसाने की लठामार होली तो और भी देखते ही बनती है जब वहां गोपियां हुरियार ग्वालों पर लठ बरसाने से भी नहीं कतरातीं और ग्वालों की सहनशीलता का चरमोत्कर्ष जहां दिखाई देने लगता है जब लठ पड़ने से कभी-कभी ग्वालबाल लहू-लुहान हो जाते हैं, लेकिन कभी किसी पर रन्ज नहीं करते। इसे देखकर यहां की संस्कृति की वह विलक्षणता चरितार्थ होने लगती है जब श्रीकृष्ण के जमाने में कभी देखने केा मिलती थी।
लोगों के रहन-सहन, आचार-विचार और रीति-रिवाज बदल रहे हैं तो होली का परिवेश भी कब तक नहीं बदलेगा, कहना मुश्किल है। समूचे परिवेश के बदलने के साथ-साथ ब्रज संस्कृति में भी बदलाव आ रहा है, लेकिन जो नहीं बदल रहा है वह ब्रजवासियों की सहनशीलता, धैर्य और साहस। इसी को देखने देश ही नहीं विदेश से भी लोग यहां लाखों की संख्या मेें पहुंचते हैं। महिलाओं के कोमल स्वभाव होली के अवसर पर कहीं उड़नछू हो जाते हैं और ग्वालों की कठोरता कोमलता में बदल जाती है। साल भर भेली ही वह बात-बात पर स्त्रियों को ताना देते रहे हों, लेकिन होली के आते ही उन्हें श्रीकृष्ण के जमाने की संस्कृति याद आ जाती है जब उन्होंने नारी के महत्व को बढ़ाने के लिए उनकी सेवा-सुससा की थी। श्रीकृष्ण राधा जी की चरण सेवा करने से भी नहीं चूके थे। वहीं स्थिति यहां के ग्वालबालों में आज भी देखने को मिलती है जब वह बरसाने या कहीं दूसरे स्थानों पर होली खेलने जाते हैं।
कामदेव का एक नाम बसन्त और मदन भी है जो उन्मुक्तता का प्रतीक है। कामदेव पर विजय पाने के लिए जब शिवजी ने उन्हें भस्म कर दिया था वहीं श्रीकृष्ण ने उनके रूप को आत्मसात कर 16108 पटरानियों के साथ अपना विवाह रचाया था। यह दोनों परिणती हमारी भारतीय संस्कृति और सभ्यता के प्रतीक हैं। इन्हीं प्रतीकों को देखने के लिए देश-विदेश के लोग हर वर्ष ब्रजभूमि में फागुन के लगते ही आने लगते हैं और फागुन के जाने के बाद ही इन पर्यटकों और भक्तों के जाने का सिलसिला चलता है। कहते हैं श्रीकृष्ण के जमाने में जब नन्दगांव के ग्वाल बरसाना आये और पीली पोखर नामक स्थान पर बरसाने के बुजुर्गों ने अपने जमायते के स्वागत में उन्हें लड्डू खिलाए तो गोपियां निकट की झाड़ियों के पीछे से उन्हे निहार रहीं थीं। तभी कुछ ग्वालों का ध्यान उनकी ओर गया और उन्होंने गोपियों की तरफ लड्डू फैंक कर दिये। उनका आशय था हम खा रहे हैं आप भी खाएं, लेकिन इस आशय को गापियां न समझ सकीं उन्होंने इसका उल्टा अर्थ ले लिया कि कृष्ण कन्हैया के सखाओं को हमारे बनाये हुए लड्डू पसन्द नहीं आये और वह हमें लड्डू से ही मारना चाहते हैं। इसी पर गोपियों ने लठ संभाल लिए और देखते ही देखते यह संग्राम लठमार होली के रूप में बदल गया। तभी से उस परम्परा के निर्वाह के लिए नन्दगांव के ग्वाल हर वर्ष फागुल शुक्ला नौमी के दिन बरसाने आते हैं और उस परम्परा के पालन के लिए बरसाने की गोपियों के साथ होली खेलते हैं। पाली पोखर से शुरू होेने वाली यह होली रंगीली गली से होती हुई श्रीजी मन्दिर तक जाती है, वहां समाज गायन होता है दूसरे दिन बरसाने के ग्वाल नन्दगांव में होली खेलने जाते हैं।
फागुन पूर्णिमा के बाद दौज को दाऊजी के मन्दिर में भी हुरंगे का आयोजन जहां हुरियारनें ग्वालबालों के कपड़े फाड़कर कोड़े बना लेती हैं और उससे उन पर हमले करती हैं। बरसाने और दाऊजी दोनों ही स्थानों पर ग्वालबाल अपने हाथों में ढ़ाल लेते हैं जिससे अपनी रक्षा करते हैं। मगर कभी भी गोपियों पर उलट वार करते नहीं देखे गये। बरसाने और दाऊजी में होली खेलने वाली ग्वालिनों के लिए दीवाली से ही घी-दूध का इन्तेजाम किया जाता है जो जितना भी घी-दूध पी सके, पिये। ऐसे अवसर पर चोट लगने वाले ग्वाल भी अपनी मरहम पट्टी नहीं कराते। ब्रजरज को घाव में लगाकर ही उसे ठीक हो जाने की कामना करते हैं। बताते हैं बदले हुए परिवेश में भी शायद ही कभी किसी ग्वाल के घाव पकते हों वरना बिना दवाई के ब्रजरज से ही ठीक हो जाते हैं।
ब्रज के मदनोत्सव का असर उसके बाद के मुस्लिम शासकों पर भी पड़ा जब उन्होंने अपने दरबारों में होली के आयोजन किये। स्वयं बादशाह अकबर भी इस परम्परा का निर्वाह करते रहे वह अपनी बेगम और हरम की दूसरी स्त्रियों के साथ होली खेलते थे। जहांगीर, शाहजहां, मौहम्मद शाह जैसे अनेकों बादशाहों ने इस परम्परा का निर्वाह किया है। ब्रजभूमि ही नहीं सुदूर पूर्व अवध के नवाब वाजिद अली शाह के भी होली खेलने की परम्परा का उदाहरण देखने को मिलता है। उनके महल में जल-क्रीड़ा, महफिल और नाटकों के भी आयोजन होते थे। एक बार जब होली और मुहर्रम एक साथ पड़े तो तत्कालीन शासक आसफुद्दौला ने हुक्म दिया कि मुहर्रम बारह बजे तक मना लिया जाये और उसके बाद सभी लोग एक साथ मिलकर होली खेलेंगे। मुस्लिम शासकों के बाद गुरूगोविन्द सिंह ने भी होली के पर्व को होला-महल्ला के रूप में मनाने की परम्परा डाली जब सिख संगत के लोग उनके सामने अपने शौर्य और साहस का प्रदर्शन करते थे।
ब्रज संस्कृति के होली उत्सव में नारियां अपने परम्परागत विधानों को पालन करते हुए अपने शौर्य, साहस और सूजबूझ से ग्वालबालों पर अपने बल का प्रयोग करतीं थीं जो आजकल भी देखने को मिलती है। बसन्त पन्चमी के आते ही लोगों में उल्लास और उमंग का माहौल होता है उसी माहौल को एक सांस्कृतिक रूप देने के लिए यह होली के आयोजन होने लगे। जब नारी की लाज और चार-दीवारी के परकोटा से बाहर निकलने पर भी उस पर किसी भी तरह की शक्ति नहीं होती है। ब्रजभूमि की यह संस्कृति सुदूर पश्चिम तक जा पहुंची जब सर्दियों के समाप्त होने पर गर्मियों के आरम्भ से पहले वेलेनटाइन-डे के रूप में ब्रज की होली का उल्लास वहां भी जा पहुँचा। उल्लास और उमंग का यह त्यौहार आज की बदली परिस्थितियों में कैसे मनायें, क्या करें और क्या न करें इस पर विचार करने की अभी आवश्यकता होने लगी है वरना यह उल्लास, उमंग का त्यौहार कहीं अपने वास्तविक स्वरूप को ही न खो दे।