ग्वालियर। ग्वालियर व्यापार मेला..! ऐसा नाम जिसकी राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर है विशेष पहचान। 104 एकड़ का वह परिसर, जहां देखते ही देखते लड़की सांप बन जाती है और मौत के कुआं में लड़की भी दो पहिया वाहन चलाती है। यहां लगने वाले धक्कों का इंतजार शहर की वर्ग बेसब्री से करता है, जिनसे परेशान कोई नहीं होता, बस ये धक्के याद बन जाते हैं। 1905 में शुरू हुए इस मेले में कई ऐसे चेहरे हैं, जो मेले में दुकानदार के रूप में नजर आते हैं। मेले में व्यापार के लिए आना इन्होंने ही शुरू नहीं किया, इस परंपरा की बागडोर को तो घर के बड़ों ने इन्हें सौंपा। शायद यही कहा होगा, अगर ग्वालियर व्यापार मेले में व्यापार करने के लिए जाओगे तो मुनाफा ही नहीं, व्यवहार भी कमाओगे। पर्दे के पीछे जाकर जब पता किया गया, सामने आया किसी के पिता 50 साल पहले मेले में आए तो किसी के दादा 70 साल पहले मेले में अपना नाम बना गए थे। उनकी पीढ़िया आज दिन तक उस नाम को मेले में चला रही हैं। आज मिलिए ग्वालियर व्यापार मेले में हर साल आने वाले चार चेहरों से, जिन्होंने इस परिसर की बदौलत शहर और प्रदेश में अलग पहचान बनाई है।
दादाजी मेरठ से आते थे ग्वालियर, नाम मिला हरिद्वार वाले
हरिद्वार वालों की तीसरी पीढ़ी मेले में जिम्मेदारी को संभाल रहे हैं। यहां जो भी सैलानी जाता है तो हरिद्वार वालों के यहां पहंुचकर गाजर के हलवे का जायका जरूर लेता है। दुकान के संचालक ललित और अनिल अग्रवाल ने बताया कि कई साल पहले दादा जी स्व. दीनानाथ अग्रवाल मेरठ से ग्वालियर में लगने वाले मेले में आते थे। उस समय यह ग्वालियर का मेला सागरताल पर लगता था। उनके दादाजी मेले में कढ़ाही दूध और पेड़ों का व्यवसाय करते थे। दादाजी के जाने के बाद यह विरासत पिता स्व. दिलीप अग्रवाल ने संभाली। जब पिता का देहांत हुआ तो लगा कि यह सिलसिला यहीं थम जाएगा, लेकिन उनके बाद मां मीरा अग्रवाल ने ग्वालियर व्यापार मेले में आने का क्रम जारी रखा।
60 साल से महसूस करा रहे ठंडा-ठंडा कूल-कूल
1964 से मेले में सैलानियों को ठंडक दे रही जैन सुपर सोफ्टी के संचालक अरविंद जैन बताते हैं कि मेले में लगभग वह 60 साल पूरे कर चुके हैं। दुकान को मेले में उनके पिता रतनचंद जैन लेकर आए थे। पूरा मेला उन्हें प्रेम से नेताजी कहकर पुकारता था। छोटी उम्र में जब वह मेले में अपने पिता के साथ आते थे तो सामने ही होने वाली दंगल प्रतियोगिता को देखते रहते थे। अब उनके भाई-भतीजे भी सैलानियों को ठंडक महसूस करा रहे हैं।
तीसरी पीढ़ी बेच रही है खिलौने
मेले में चल रही सोनू मोनू टायज नाम की दुकान के संचालक प्रेमचंद बताते हैं कि उनके पिता चुन्नीलाल ने वर्ष 1953 से मेले में खिलौने की दुकान लगाना शुरू किया था। उनका जन्म भी उसके बाद हुआ है। आज प्रेमचंद स्वयं लगभग 55 वर्ष के हो चुके हैं और अब उनके बेटे विशाल और आकाश मेले में इस दुकान की जिम्मेदारी संभाले हुए हैं। अपने अनुभव साझा करते हुए प्रेमचंद ने बताया कि देखते ही देखते कब इस मेले में 70 साल निकल गए पता भी नहीं चला..। आगे की बागडोर बेटों के हाथों में है।
चाचा ने सजाई थी हैंडलूम की दुकान और अब
मेले में 60 साल से अधिक समय से शाल और कंबल बेच रहे हरियाणा हैंडलूम के संचालक अरविंद कुमार बताते हैं कि यह दुकान मेले में उनके चाचा पुत्तू लाल लेकर आए थे। फिर जैसे ही वह जिम्मेदारी संभालने लायक हुए उन्होंने इस दुकान पर समय देना शुरू कर दिया। अब उनका बेटा आयुष भी समय निकालकर मेले में आकर दुकान संभालता है। अरविंद बताते हैं कि इस मेले ने उन्हें अपना बना लिया है, अब यह मेला उन्हें अपने परिवार जैसा लगता है। बातों ही बातों में अरविंद ने बताया कि जब तक हम बच्चों की आंखों के सामने उन्हें आगे मिलने वाली जिम्मेदारी के बारे में नहीं बताएंगे, तब तक वे समझदार नहीं बनेंगे। पूरा परिवार इस मेले में मिलने वाले माहौल के बारे में जानता है।
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