दिल्ली से कश्मीर की राजनीति में गए पूर्व केंद्रीय मंत्री गुलाम नबी आजाद वोटिंग से पहले ही सरेंडर मोड में पहुंच गए हैं. चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा के बाद अब आजाद ने प्रचार भी नहीं करने का फैसला किया है. वैसे तो आजाद ने इसका कारण स्वास्थ्य बताया है, लेकिन ऐन चुनावी वक्त में उनके इस ऐलान के अलग ही सियासी मायने निकाले जा रहे हैं.
श्रीनगर से लेकर दिल्ली तक सियासी गलियारों में एक सवाल पूछा जा रहा है कि क्या सच में स्वास्थ्य की वजह से ही आजाद ने कश्मीर से दूरी बना ली है?
आजाद ने बनाई थी खुद की पार्टी
2022 में कांग्रेस छोड़ने के बाद गुलाम नबी आजाद ने खुद की डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव आजाद पार्टी बनाई थी. आजाद ने अपनी पार्टी में उन नेताओं को जोड़ा, जो कांग्रेस या अन्य पार्टियों से नाराज चल रहे थे. शुरुआत में कहा गया कि आजाद की पार्टी घाटी की अधिकांश सीटों पर फोकस कर रही है. आजाद ने भी कश्मीर में पूरे दमखम से चुनाव लड़ने का ऐलान किया था.
1970 के आसपास राजनीति में कदम रखने वाले गुलाम नबी आजाद जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं. इसके अलावा आजाद केंद्र की कई सरकारों में मंत्री रहे हैं. आजाद 2014 से 2021 तक राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष रहे हैं. कांग्रेस के भीतर आजाद की गिनती शीर्ष नेताओं में होती थी.
पहले लोकसभा फिर विधानसभा नहीं लड़े
मार्च 2024 में जब लोकसभा चुनाव की घोषणा हुई तो डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव आजाद पार्टी ने गुलाम नबी को बारामूला सीट से प्रत्याशी घोषित किया, लेकिन नाम ऐलान होने के कुछ दिन बाद ही आजाद ने चुनाव नहीं लड़ने की घोषणा कर दी.
इसके बाद चुनाव में आजाद की पार्टी की तरफ से 3 जगहों पर उम्मीदवार उतारे गए. चुनाव आयोग के मुताबिक तीन सीटों पर डीपीएपी के उम्मीदवारों को 80,264 वोट ही मिले. तीनों ही सीट पर आजाद की पार्टी के नेताओं की जमानत जब्त हो गई.
इसके बाद गुलाम के विधानसभा चुनाव लड़ने की अटकलें शुरू हुई. कहा गया कि वे अपने पुरानी भदरवाह सीट से चुनाव लडड सकते हैं, लेकिन विधानसभा चुनाव की घोषणा होते ही आजाद ने मैदान में नहीं उतरने की घोषणा कर दी.
अब आजाद ने प्रचार से बना ली दूरी
जम्मू-कश्मीर में पहले चरण की सीटों के लिए प्रचार शुरू हो गया है. इनमें अधिकांश वो सीटें हैं, जहां आजाद की पार्टी खुद को मजबूत मान रही थी. आजाद की पार्टी पहले चरण के 24 में से 13 सीटों पर चुनाव लड़ने की भी घोषणा की थी, लेकिन प्रचार शुरू होते ही आजाद ने रैली नहीं करने की घोषणा कर दी है.
आजाद की तरफ से जारी बयान में कहा गया है कि उनकी सेहत अच्छी नहीं है और इसलिए वे प्रचार नहीं कर पाएंगे. आजाद ने अपने नेताओं से अपील करते हुए कहा है कि अगर आपको पर्चा वापस लेना है तो ले सकते हैं.
आजाद बैकफुट पर क्यों, 3 पॉइंट्स
1. जम्मू-कश्मीर में आजाद को किसी बड़ी पार्टी के साथ गठबंधन की उम्मीद थी, लेकिन उनकी दाल नहीं गली. पहले कहा गया कि कश्मीर में आजाद की पार्टी बीजेपी से गठबंधन कर सकती है, लेकिन यहां भी बात नहीं बनी. फिर बीच में चर्चा उड़ी कि आजाद की पार्टी का कांग्रेस के साथ गठबंधन हो सकता है. आजाद यहां भी फेल रहे.
2. घाटी में राज्य का दर्जा और अनुच्छेद 370 बड़ा मुद्दा है. आजाद का इस पर रवैया ढुलमुल ही रहा है. जब केंद्र सरकार 370 हटा रही थी, उस वक्त आजाद ही नेता प्रतिपक्ष थे. कहा जाता है कि आजाद खुद लड़कर इस गुस्से का शिकार नहीं होना चाहते. लोकसभा चुनाव में गुलाम नबी यह रिजल्ट देख चुके हैं.
3. शुरुआत में ताराचंद से लेकर कई बड़े नेता गुलाम नबी आजाद की पार्टी में गए, लेकिन अब उनमें से अधिकांश नेता पार्टी छोड़ चुके हैं. कुल मिलाकर कहा जाए तो घाटी में लड़ने के लिए आजाद के पास न तो वर्तमान में नेता हैं और नीति.
तो क्या चुनावी राजनीति छोड़ेंगे?
गुलाम नबी को लेकर इस बात की भी चर्चा तेज है. इसकी 2 वजहें हैं- पहली वजह गुलाम नबी आजाद की उम्र. गुलाम वर्तमान में 76 साल के हैं. कश्मीर में अब जब अगली बार चुनाव होंगे तो उनकी उम्र करीब 80 के आसपास रहेगी.
दूसरी वजह उनकी राजनीति रही है. गुलाम नबी करीब 20 साल तक कांग्रेस में राज्यसभा के जरिए ही राजनीति की. कहा जाता है कि जब राहुल गांधी ने उन्हें कश्मीर में जाकर काम करने के लिए कहा तो उन्होंने बगावत कर दी.
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