भगवान शिव की जो अवधारणा हमारे दिमाग में है, उसमें वह हमेशा त्रिशूल धारण करते हैं और डमरू बजाते हैं. यह अवधारणा शिव पुराण और स्कंद पुराण में वर्णित विभिन्न प्रसंगों से बनी है. इन पुराणों में भगवान शिव के त्रिशूल और डमरू का विशेष महत्व बताया गया है. शिवपुराण के एक प्रसंग में त्रिशूल को कफ, वात और पित कहा गया है. कहा गया है कि त्रिशूल पर नियंत्रण हासिल करने के बाद व्यक्ति को संसार की चिंता नहीं रहती. ऐसे व्यक्ति का मन विचलित नहीं होता और वह सहज समाधि का प्राप्त कर सकता है.
शिवपुराण के ही एक अन्य प्रसंग में त्रिशूल की अध्यात्मिक व्याख्या की गई है. इसमें त्रिशूल को त्रिगुण (सत, रज और तम) के रूप में लिया गया है. कहा गया है कि भगवान शिव को त्रिगुणों पर भी आधिपत्य हासिल था. जब कोई व्यक्ति त्रिगुणों पर विजय हासिल कर ले तो वह सभी तरह के गुण दोष से परे होकर सर्व शक्तिमान हो जाता है. इसी प्रकार डमरू का अर्थ आनंद के रूप में किया गया है. स्कंद पुराण में भी भगवान शिव के डमरू और त्रिशूल के प्रसंग कई जगह मिलते हैं.
भगवान शिव की मुट्ठी में है त्रिशूल
स्कंद पुराण में भगवान शिव को महायोगी बताया गया है. इसमें कहा गया है कि उन्हें त्रिशूल (कफ, वात और पित) पर विजय हासिल है. स्कंद पुराण के मुताबिक भगवान शिव अपनी योग शक्ति के दम पर त्रिशूल को अपने मुट्ठी में बांधकर रखते हैं. इसमें त्रिशूल को मुट्ठी में करने के उपायों का भी जिक्र किया गया है. कहा गया है कि त्रिशूल पर नियंत्रण की वजह से ही भगवान शिव को संसार की किसी भी रोग व्याधि का असर नहीं होता. जब आदमी रोग व्याधि से मुक्त हो तो मन विचलित नहीं होता और उसे सहज समाधि की प्राप्ति होती है.
आनंद को द्योतक है भगवान शिव का डमरू
शिव पुराण के मुताबिक भगवान शिव को सहज समाधि प्राप्त थी. अपनी पत्नी सती के योगाग्नि में भस्म होने के बाद भगवान शिव 87 हजार वर्षों तक सहज समाधि में रहे थे. अब बात कर लेते हैं डमरू की. दरअसल डमरू को शिव पुराण और स्कंद पुराण में आनंद को द्योतक कहा गया है. मतलब कोई व्यक्ति जब अपने समाधि के दम पर अपने इष्ट का साक्षात्कार कर ले तो वह परम आनंद को प्राप्त करता है. ऐसा व्यक्ति ही डमरू बजा सकता है. इन दोनों पुराणों के मुताबिक भगवान शिव जब भी समाधि में जाते हैं तो वह नारायण का साक्षात्कार करते हैं और आनंद के वशीभूत होकर डमरू बजाते हैं.
चरक संहिता में है त्रिशूल का वर्णन
भगवान शिव के त्रिशूल और डमरू को मौजूदा परिप्रेक्ष्य में भी ऋषियों मुनियों के साथ ही वैद्यों ने परिभाषित किया है. चरक संहिता में कफ वात और पित को सभी तरह की बीमारियों का जड़ बताया गया है. इस ग्रंथ के मुताबिक मुनष्य के शरीर में होने वाले सभी बीमारियां इन्हीं में से किसी एक दोष से शुरू होती है. कई बार मुनष्य के अंदर एक से अधिक दोष भी आ जाते हैं और ऐसे हालात में लोग लाइलाज बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं. चरक संहिता में भी इन तीनों दोषों से बचने के उपाय बताए गए हैं. इसमें भगवान शिव का अष्टांग योग अहम है.
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