महाराष्ट्र में 6 किलोमीटर गहरा गड्ढा क्यों खोद रही है केंद्र सरकार? जानें मिशन के लिए कोयना ही क्यों चुना गया

इंसान ने विज्ञान में खूब तरक्की कर ली है. सुनामी हो, तूफान हो या ज्वालामुखी विस्फोट, आज की आधुनिक मशीनों से इनका पूर्वानुमान लगाया जा सकता है. लेकिन भूकंप एक ऐसी आपदा जो कब आ जाए या कहां आ जाए, कोई नहीं बता सकता. भारत सरकार अब इन सवालों का जवाब ढूंढ़ने के लिए महाराष्ट्र में 6 किलोमीटर गहरा गड्ढा खोद रही है. इसे साइंटिफिक डीप-ड्रिलिंग कहा जाता है. आइए जानते हैं ये क्या है और इससे धरती के बारे में क्या-क्या नई जानकारी मिलेगी.

महाराष्ट्र के कराड में स्थित बोरहोल जियोफिजिक्स रिसर्च लेबोरेटरी (Borehole Geophysics Research Laboratory- BGRL) राज्य के कोयना-वारना क्षेत्र में साइंटिफिक डीप-ड्रिलिंग का काम कर रहा है. यह अपनी तरह का भारत का एकमात्र मिशन है. मिनिस्ट्री ऑफ अर्थ साइंस की देखरेख में इसका संचालन हो रहा है.

क्या होती है साइंटिफिक डीप-ड्रिलिंग?

साइंटिफिक डीप-ड्रिलिंग का मतलब पृथ्वी की परत (क्रस्ट) के गहरे हिस्सों का विश्लेषण करने के लिए रणनीतिक रूप से बोरहोल खोदना है. भूकंपों का अध्ययन सतह के स्तर से नहीं किया जा सकता.

केवल भूकंपों का अध्ययन ही नहीं, साइंटिफिक ड्रिलिंग से धरती के इतिहास, चट्टान के प्रकार, ऊर्जा संसाधनों, जलवायु परिवर्तन पैटर्न, जीवन के विकास और बहुत कुछ के बारे में हमारी समझ का विस्तार होता है. ऐसे प्रोजेक्ट किसी क्षेत्र के भूकंप व्यवहार की निगरानी कर सकते हैं.

प्रोजेक्ट के लिए कोयना को ही क्यों चुना गया?

भारत के पश्चिमी तट के करीब स्थित कोयना क्षेत्र रिजर्वायर ट्रिगर सिस्मीसिटी (RTS) का सबसे उत्तम उदाहरण है. RTS धरती की वो कंपन हैं जो जलाशय के भार कारण होती हैं. इस क्षेत्र में अब तक का सबसे बड़ा रिजर्वायर-ट्रिगर भूकंप (M 6.3) दिसंबर 1967 में आया था. साल 1962 में शिवाजी सागर झील या कोयना बांध के बंद हो जाने के बाद से इस क्षेत्र में लगातार छोटे-मोटे भूकंप आते रहे हैं. ज्यादातर भूकंप करीब 7 किलोमीटर की गहराई पर मांपे गए हैं. इस जगह से 50 किलोमीटर के दायरे में भूकंपीय गतिविधि नहीं होती है. इस वजह से “महाराष्ट्र के कोयना इंट्रा-प्लेट भूकंपीय क्षेत्र में साइंटिफिक डीप-ड्रिलिंग” नाम के नेशनल प्रोजेक्ट के लिए इस जगह को चुना गया.

कब से चल रहा है मिशन?

कोयना में डीप-ड्रिलिंग का काम 2014 से चल रहा है. खुदाई से पहले विभिन्न अध्ययन और जांच की गई थी. प्रोजेक्ट के तहत, महाराष्ट्र के कराड में ‘बोरहोल जियोफिजिक्स रिसर्च लेबोरेटरी’ स्थापित की गई है जो डीप-ड्रिलिंग से संबंधित रिसर्च के लिए ऑपरेशनल सेंटर के रूप में काम करेगी.

मिनिस्ट्री ऑफ अर्थ साइंस की वेबसाइट के मुताबिक, साइंटिफिक डीप-ड्रिलिंग का काम कम से कम 15-20 साल तक जारी रहने की उम्मीद है. इससे डेक्कन ज्वालामुखी और बड़े पैमाने पर विलुप्त होने के साथ-साथ क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के भू-तापीय रिकॉर्ड की जानकारी मिलेगी. इस प्रस्तावित पहल की अनुमानित लागत लगभग 400 करोड़ रुपये होगी.

रूस, अमेरिका और चीन भी कर चुके हैं खुदाई

यह प्रोजेक्ट लेबर और पैसे, दोनों की मांग करता है. ऊपर से पृथ्वी का आंतरिक भाग भी एक गर्म, अंधेरा, उच्च दबाव वाला क्षेत्र होता है. इसमें खुदाई करना एक चुनौती है. फिलहाल, कोयना पायलट बोरहोल लगभग 0.45 मीटर चौड़ा (सतह पर) और लगभग 3 किमी. गहरा है. मड रोटरी ड्रिलिंग और पर्क्यूशन ड्रिलिंग (जिसे एयर हैमरिंग भी कहते हैं) तकनीकों के मिश्रण से यह काम हुआ है.

अमेरिका, रूस और जर्मनी जैसे कई देशों ने 1990 के दशक में इस तरह की वैज्ञानिक मिशन चलाए हैं. रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2023 में, चीन ने अपना स्वयं का एक डीप-ड्रिलिंग मिशन शुरू किया था. चीन ने अपने उत्तरी पश्चिमी राज्य सिंकयांग में स्थित टकलामकान रेगिस्तान में 11 किलोमीटर से ज्यादा गहरा गड्ढा खोद रहा है. चीन की सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ की एक रिपोर्ट के अनुसार यह गहरा गड्ढा धरती की प्राचीनतम क्रेटासियस दौर की तह तक पहुंचेगा. क्रेटासियस एक भूगर्भीय काल माना जाता है जो 145 से 66 मिलियन वर्ष के बीच की बात है. इस योजना के 457 दिन में पूरी होने की उम्मीद है.

Comments are closed, but trackbacks and pingbacks are open.