नीति आयोग की रिपोर्ट कहती है कि 2030 तक भारत के 10 बड़े शहर पानी की किल्लत का सामना करेंगे. इनमें दिल्ली, बेंगलुरु, अमृतसर, गांधीनगर जैसे शहर शामिल हैं. भारत में 8 बड़ी और 250 के करीब छोटी नदियां हैं फिर भी देश के सामने पानी का संकट खड़ा नजर आ रहा है. लेकिन क्या आपने सोचा है जिस देश में एक भी नदी नहीं है और हर तरफ रेगिस्तान है, वहां लोगों के लिए पानी का इंतेजाम कैसे होता होगा?
हम बात कर रहे हैं सऊदी अरब की. सऊदी को अगर हम गूगल मैप पर देखेंगे तो ये देश पूरी तरह रेगिस्तान के आगोश में दिखाई देता है और यहां आपको बाकी देशों की तरह जंगल और पानी नजर नहीं आएगा. या यूं कहे कि मैप में मटमैले रंग के अलावा नीला और हरा रंग नहीं दिखाई देता है. सऊदी अरब की आबादी करीब 3 करोड़ 70 लाख है और यहां लाखों की तादाद में हर साल टूरिस्ट और धार्मिक यात्री आते हैं. सवाल उठता है सऊदी अरब बिना नदी और कुछ नहरों, बहुत कम बारिश होने के बावजूद इतनी बड़ी आबादी के लिए पानी का इंतेजाम कैसे करता है?
कहां से आता है पानी?
हज़ारों सालों से सऊदी के लोग पानी के लिए कुंओं पर निर्भर रहे, लेकिन बढ़ती आबादी की वजह से जमीनी पानी का इस्तेमाल बढ़ता गया और इसकी भारपाई प्राकृतिक तौर पर नहीं हो पाई. पानी की कमी की वजह बना सरकार का साल 1970 के दशक में लिया गया वो फैसला जिसमें खेती को बढ़ावा दिया गया. सऊदी सरकार ने सब्ज़ियों और खाने पर आत्मनिर्भर बनने के लिए खेती को बढ़ावा देना शुरू किया. लोगों ने इसके लिए बड़ी तादाद में कुएं खोदे और खेती करना शुरू कर दिया. कुछ ही सालों बाद सऊदी अरब की रेतेली ज़मीन पर गेंहू के खेत लहलहाने लगे. जिसकी वजह से ग्राउंड वाटर तेजी से घटने लगा और साल 2008 आते-आते यहां के लगभग सभी कुएं सूख गए. नौबत यहां तक आ गई कि सऊदी सरकार को गेंहू की खेती पर बैन लगाना पड़ा.
समुद्र के पानी को पीने के लिए बदला
सऊदी की जमीन में वाहन और फैक्टिरियों को चलाने के लिए भरपूर मात्रा में तेल है. लेकिन इंसान को चलाने के लिए पानी नहीं. सऊदी अरब दो तरफ से पानी से घिरा है एक तरफ है गल्फ ऑफ परशिया और दूसरी तरफ रेड सी, लेकिन ये समुद्री पानी खारा है और इस्तेमाल लायक नहीं. सऊदी ने इस परेशानी को हल करने के लिए समुद्र के पानी को ही पीने के पानी में बदलने की कवायद शुरू की. समुद्री पानी को पीने लायक बनाने की प्रक्रिया डीसेलीनेशन कहलाती है. सऊदी अरब के पास दुनिया का सबसे बड़ा डीसेलीनेशन प्लांट है. डीसेलीनेशन करने के लिए समुद्री पानी को लंबे प्रोसेस से गुजार कर उसके नमक को अलग कर इस्तेमाल लायक बनाया जाता है. देश की करीब 70 फीसदी पानी की मांग इन्हीं प्लांट्स से पूरी की जाती है, लेकिन ये प्रोसेस बहुत महंगा है और सऊदी अरब सरकार इसके लिए अरबों डॉलर खर्च करती है.
देश के करीब 30 फीसदी पानी की मांग को अकवीफर्स भी पूरा करते हैं. अकवीफर्स में अंडरग्राउंड तौर पर पानी को इकट्ठा करते हैं और इस तकनीक को शहरी व कृषी दोनों जरूरतों के लिए इस्तेमाल किया जाता है. 1970 के दशक से ही अकवीफर्स बनाने का काम शुरू हो गया था और आज देश में हजारों अकवीफर्स मौजूद हैं.
कमी के बावजूद सबसे ज्यादा पानी खर्च करते हैं सऊदी
GCC (Gulf Cooperation Council) देश पानी की कमी के बावजूद दुनिया में सबसे ज्यादा पानी खर्च करते हैं. तेल की वजह से अर्थव्यवस्था मजबूत है और सरकार महंगे पानी पर भी लोगों को सब्सिडी देती है. सऊदी में प्रति व्यक्ति पानी का उपयोग 350 लीटर प्रति दिन है, जबकि वैश्विक औसत 180 लीटर प्रति दिन है. सऊदी अरब अमेरिका और कनाडा के बाद दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा पर-पर्सन वॉटर कंज्यूमर देश है.
डीसेलीनेशन से पर्यावरण को खतरा
डीसेलीनेशन प्रोसेस प्लांट से ऐसा पानी डंप किया जाता है जिसमें बड़ी तादाद में नमक होता है. खाड़ी देशों के समुद्रों के पानी को 25 फीसदी ज्यादा नमकीन कहा जाता है. एक अनुमान के मुताबिक, दुनिया का 55 फीसदी नमकीन पानी खाड़ी देशों से आता है. डीसेलीनेशन के नमकीन पानी डंप से ईको-सिस्टम को बहुत नुकसान पहुंच रहा है, इन देशों में पहले से गैस और तेल के उत्पादन ने पर्यावरण को दूषित कर रखा है.
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