इंदौर। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के प्रचंड उभार के बाद से भाजपा शासित अन्य राज्यों के नेता इस हिचकिचाहट में रहे कि वे अपने-अपने राज्यों में प्रखर हिंदुत्व की राह पकड़ें या कथित सेकुलरिज्म की। कई नेताओं ने राह बदली भी। जो पहले हंसते-खिसियाते सफेद गोल टोपी पहन लिया करते थे, वे अब गले में भगवा डाले मुखर बयानबाजी करते दिखाई देते हैं।
क्या विजयवर्गीय इस बार आसानी से जीत जाएंगे? इसका उत्तर तो जनता मतदान में ही देगी, किंतु कैलाश आश्वस्त दिखते हैं कि वह चुनाव का ‘कैलाश पर्वत’ चढ़ जाएंगे। विजयवर्गीय कभी विधानसभा चुनाव हारे नहीं हैं। हर चुनाव उन्होंने अपनी शैली में लड़ा और जीते। इस शैली में भोजन-भंडारा, हिंदुत्व, मंदिरों का विकास, सड़कों का निर्माण, जनता का सुख-दुख और कभी-कभार उत्तेजना पैदा कर देने वाली बयानबाजी शामिल हैं।
यद्यपि बयानबाजी ने उन्हें कई बार संकट में डाला और इससे जनता एक बड़ा धड़ा उनके प्रति जुगुप्सा और नकार भाव से भरा हुआ भी है। इसके बावजूद उनकी जमीनी पकड़ और संगठनात्मक शैली उन्हें कद्दावर नेता बनाती है।
भाजपाई आरती की थाली में रखा कपूर हैं कैलाश
हिंदी, हिंदु और हिंदुस्तान भाजपा की राजनीतिक धुरी हैं। ऐसे में कैलाश विजयवर्गीय को भाजपा की आरती की थाली में रखा कपूर कहा जा सकता है। जिस तरह कपूर अग्नि की लौ को अचानक बढ़ा देता है, उसी तरह भाजपा की संगठनात्मक राजनीति में यह काम कैलाश विजयवर्गीय करते हैं। याद कीजिए, जब भाजपा को बंगाल की रूखी जमीन पर सत्ता का बीज बोना था, तो राजनीति का हल चलाने का जिम्मा विजयवर्गीय को दिया गया।
पार्टी ने उन्हें हरियाणा के विधानसभा चुनाव में भेजा तो उन्होंने चार सीटों से बढ़ाकर 47 करते हुए सरकार बनवा दी। यद्यपि इस बार इंदौर की सीट क्रमांक एक से विधायकी के चुनाव के लिए विजयवर्गीय को जमीनी मेहनत करनी पड़ रही है। दरअसल, इस बार कैलाश की राह न बहुत सरल है, न बहुत कठिन। जनता ही तय करेगी कि कैलाश राजनीति का कैलाश पर्वत चढ़ पाते हैं या विजयवर्गीय के हाथ इस बार विजय नहीं लगने वाली।
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