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सिवनी

सच बोलने की सज़ा: जब पत्रकारिता निशाने पर हो

आज के दौर में जब सूचनाओं का अंबार है, एक निष्पक्ष और साहसी पत्रकार की भूमिका पहले से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गई है. पत्रकारिता का मूल धर्म ही सच्चाई को उजागर करना है, चाहे वो कितनी भी कड़वी क्यों न हो. यह समाज का वो आईना है जो हमें हमारी अच्छाइयों और बुराइयों दोनों से रूबरू कराता है. लेकिन, विडंबना यह है कि जब कोई पत्रकार सत्ता या व्यवस्था की खामियों को सामने लाता है, तो उसे अक्सर शासन-प्रशासन के प्रहारों का सामना करना पड़ता है.
जब सच्चाई बोलना अपराध बन जाए
लोकतंत्र की सबसे बुनियादी शर्त है  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। इस स्वतंत्रता के वाहक पत्रकार होते हैं, जो सत्ता, समाज और जनता के बीच एक सेतु का कार्य करते हैं। परंतु जब यही पत्रकार सच्चाई को सामने लाने का प्रयास करते हैं, तो शासन-प्रशासन के प्रहारों का सामना उन्हें क्यों करना पड़ता है?
हाल के वर्षों में यह प्रवृत्ति देखने को मिल रही है कि जैसे ही कोई पत्रकार भ्रष्टाचार, अनियमितता या सत्ता के दुरुपयोग को उजागर करता है, वैसे ही उस पर दबाव, धमकी, झूठे मुकदमे या शारीरिक हमले तक होने लगते हैं। यह न केवल पत्रकारिता की स्वतंत्रता पर हमला है, बल्कि पूरे लोकतंत्र पर प्रश्नचिन्ह है।
सच्चाई बोलने वाला पत्रकार अगर असुरक्षित है, तो आम नागरिक की आवाज कौन उठाएगा? क्या एक स्वस्थ लोकतंत्र में यह स्वीकार्य हो सकता है कि कलम से निकले सच को कुचलने के लिए ताकत और सत्ता का दुरुपयोग किया जाए?
एक निष्पक्ष और जिम्मेदार शासन को आलोचना का स्वागत करना चाहिए, क्योंकि आलोचना ही सुधार का मार्ग प्रशस्त करती है। यदि किसी पत्रकार की रिपोर्ट झूठी या पक्षपातपूर्ण है, तो उसके लिए कानून और न्याय की उचित प्रक्रिया उपलब्ध है -हिंसा, दमन या उत्पीड़न नहीं।
आज आवश्यकता है कि हम उन पत्रकारों के साथ खड़े हों जो जोखिम उठाकर भी जनता के हित में सच्चाई को उजागर करने का साहस रखते हैं। सच्ची पत्रकारिता लोकतंत्र की आत्मा है -और आत्मा को दबाया नहीं जा सकता।

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