कहां कहां धार्मिक स्थलों पर चढ़ता है मांस और मदिरा का प्रसाद, शास्त्रों में क्या है विधान?

श्रीमाता वैष्णो देवी के मंदिर के पास एक होटल में शराब पीकर और मांस खाकर मशहूर सोशल मीडिया एंफ्लुएंसर ओरी विवादों में घिर गए हैं. उनके खिलाफ मुकदमा तक दर्ज हो गया. ऐसे में यह बड़ा सवाल खड़ा हो गया है कि धार्मिक स्थलों के पास शराब और मांस का सेवन क्यों प्रतिबंधित है? इस संबंध में विभिन्न धर्म ग्रंथों में क्या विधान है? यह सवाल इसलिए भी मौजू है कि देश भर में कई प्रमुख धार्मिक स्थल हैं, जहां शराब और मांस का ही प्रसाद चढ़ता है और यही प्रसाद भक्तों के बीच वितरित भी होता है. आइए, इन्हीं सवालों का जवाब ढूंढने की कोशिश करते हैं.

पहले ये बताते हैं कि किन-किन मंदिरों में शराब और मांस का प्रसाद चढ़ता है. परंपरागत तरीके से लगभग सभी देवी मंदिरों के आस पास काल भैरव का भी मंदिर होता है. आम तौर पर काल भैरव को शराब और मांस का ही प्रसाद चढ़ाया जाता है. मुख्य रूप से गुजरात के काल भैरव मंदिर का मुख्य प्रसाद शराब है. काल भैराव को प्रसाद चढ़ाने के बाद भक्त खुद भी इसे ग्रहण करते हैं. इसी प्रकार मध्य प्रदेश के काल भैरव मंदिर और उत्तराखंड के भैरव नाथ मंदिर में भी शराब ही मुख्य प्रसाद है. इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के सीतापुर स्थित खबीस बाबा के मंदिर में भी शराब से ही भोग प्रसाद लगता है.

मुनियंडी स्वामी में मटन बिरयानी का भंडारा

तमिलनाडु के मुनियंडी स्वामी मंदिर में तो चिकन और मटन बिरयानी का प्रसाद लगता है. यह मंदिर मदुरै के वडक्कमपट्टी में है. इस मंदिर भगवान मुनियंडी को समर्पित तीन दिवसीय वार्षिक उत्सव का आयोजन होता है. ओडिशा के विमला मंदिर में माता को मछली और मटन का प्रसाद चढ़ता है. माता दुर्गा का एक रूप माने जाने वाली विमला माता को जगन्नाथ मंदिर परिसर के अंदर ही है. इसे शक्तिपीठ माना गया है. इसी प्रकार उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में तरकुलहा देवी का मंदिर है. यहां भी बकरे का मीट प्रसाद के रूप में चढ़ाया जाता है. यही प्रसाद भक्तों में भी वितरित होता है.

इन शक्तिपीठों पर चढ़ता है मांस प्रसाद

केरल के पारसिक कदवु मंदिर में तो भगवान को मछली और ताड़ी का भोग चढ़ाया जाता है. मान्यता है कि इस भोग से देवता प्रसन्न होते हैं और सभी मनोकामनाएं पूरी करते हैं. वहीं पश्चिम बंगाल में स्थित और 51 शक्तिपीठों में शामिल कालीघाट माता को मांस का भोग चढ़ता है. यहां माता को प्रसन्न करने के लिए बकरे की बलि दी जाती है. वहीं असम के कामाख्या देवी मंदिर में भी मछली और मांस का प्रसाद चढ़ाया जाता है. इस मंदिर में तांत्रिक शक्तियों को हासिल करने के लिए तरह तरह के कर्मकांड किए जाते हैं. यहां प्रसाद में बस लहसुन और प्याज वर्जित है. पश्चिम बंगाल के तारापीठ मंदिर में मछली और मांस तथा दक्षिणेश्वर काली मंदिर में मछली का भोग प्रसाद लगता है.

शास्त्रीय परंपरा में नहीं है इस तरह का भोग प्रसाद

अब बात करते हैं शास्त्रों की तो किसी भी शास्त्रीय परंपरा में स्पष्ट रूप से मांस मछली के भोग प्रसाद का विधान नहीं मिलता. श्रीमद भागवत के जड़ भरत प्रसंग में उल्लेख मिलता है कि एक बार भरत जी को भीलों ने पकड़ लिया और माता के सामने बलि देने लगे. उस समय मां भद्रकाली साक्षात प्रकट हो गई और उन्होंने सवाल किया कि मैंने कब बलि मांगी? इस प्रसंग में भीलों को डांट फटकार कर माता खुद भरत जी महाराज को मुक्त कराती हैं. इसी प्रकार देवी पुराण और श्री मार्कंडेय पुराण में में भी कई जगह बलि का विरोध किया गया है. गरुण पुराण में तो देव स्थान की चौहद्दी में बलि या मांस के सेवन पर प्रतिबंध की बात कही गई है.

समाज में कैसे शुरू हुई बलि प्रथा

मंदिरों में मानव या पशु बलि की प्रथा का कोई उदाहरण वैदिक, उत्तर वैदिक और पौराणिक काल में नहीं मिलता. हालांकि उत्तर पौराणिक काल के कई ग्रंथों में इसका जिक्र मिलता है. मान्यता है कि बलि प्रथा की शुरुआत सभ्य समाज में नहीं हुई, बल्कि इसकी शुरूआत जंगलों में रहने वाले कोल भील और अन्य आदिवासी समाज में हुई. चूंकि ये लोग मांस का सेवन करते थे और अपने ईष्ट को प्रसाद के रूप में मांस और मदिरा ही अर्पित करते थे. हालांकि ये आदिवासी लोग भी बलि देवता के भोग के नाम पर करते थे. उन्हें देखकर ही सभ्य समाज ने भी मांस मदिरा का सेवन करना सीखा. इसके साथ ही सभ्य समाज में भी मानव और पशु बलि की प्रथा भी आ गई.

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