इंजीनियर अतुल सुभाष ने आत्महत्या की. आत्महत्या से पहले उन्होंने एक लंबा वीडियो रिकॉर्ड किया, जिसमें पत्नी – निकिता सिंघानिया और उनके परिवार वाले वालों को आत्महत्या का कसूरवार बताया. मोटे तौर पर अगर कहें तो अतुल का इल्जाम है कि महिला प्रताड़ना पर रोक के लिए बनाए गए कानूनों का उनकी पत्नी और उसके परिवार वालों ने बेजा इस्तेमाल किया. साथ ही, देश के ढुलमुल न्यायतंत्र की कीमत उन्हें चुकानी पड़ी. जाहिर है, अब उनकी आत्महत्या का मामला अदालत में जाएगा और मुमकिन है उनकी पत्नी को हत्या के लिए उकसाने या प्रताड़ित करने के आरोप झेलने पड़े.
अतुल के मामले में जारी बहसबाजी के बीच सुप्रीम कोर्ट ने आत्महत्या ही से संबंधित एक दूसरे मामले में काफी अहम आदेश दिया है. ये मामला एक ऐसी औरत से जुड़ा था जिन्होंने शादी के 12 बरस के बाद आत्महत्या कर ली थी. औरत की मृत्यु के बाद उसके पिता ने आईपीसी की धारा 498A और 306 के तहत महिला के पति के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया. आरोप था कि महिला की आत्महत्या से एक बरस पहले उसके गहने पति ने बेच दिए थे. बाद में जब महिला ने उसे वापस करने की मांग की तो आरोप हैं कि पति ने उसे शारीरिक और मानसिक तौर पर प्रताड़ित किया.
सुप्रीम कोर्ट ने क्या फैसला सुनाया?
मामला अलग-अलग अदालतों से होता हुआ सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. जहां सर्वोच्च अदालत ने कहा कि कथित प्रताड़ना और आत्महत्या के बीच कोई सीधा संबंध नहीं है. कथित तौर पर सोने के गहने बेचने और उसके बाद हुए शारीरिक-मानसिक प्रताड़ना के आरोप भी एक बरस पुराने हैं.
साथ ही, अदालत ने कहा कि सोने के आभूषण बेचना, उसके बाद पत्नी की मांग पर कलह-उत्पीड़न की बात अगर सच भी हो तो ये मृतक को आत्महत्या के लिए उकसाने, उत्तेजित करने के किसी भी इरादे को नहीं दर्शाते. लिहाजा, अदालत ने पति को आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप (आईपीसी की धारा 306) में दोषी नहीं माना और बरी कर दिया.
SC ने IPC 306 की नई व्याख्या की
इस तरह, सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 306 (आत्महत्या के लिए उकसाने) को नए सिरे से परिभाषित किया. जिसके मुताबिक महज प्रताड़ना को आधार बनाकर किसी को आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी नहीं ठहराया जा सकता.
अदालत ने कहा – केवल उत्पीड़न के आधार पर, पत्नी और उसके पति एवं ससुराल वालों के बीच हुए इस तरह के मसलों (गहने बेचने जैसे) से ऐसी परिस्थिति नहीं उभर जाती जिससे उसके पास अपना जीवन समाप्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा हो.
सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि आरोपी को ऐसे मामलों में तभी दोषी ठहराया जा सकता है, जब आरोपी की हरकतों से पीड़ित शख्स के पास आत्महत्या के अलावा कोई दूसरा रास्ता ही न सूझे. और ये भी कि ऐसी हरकतें आत्महत्या के समय से कुछ पहले की गई हों. ऐसा नहीं हो सकता कि घटना काफी पहले की हो, और उसे आधार बनाकर आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोपी माना जाए.
सुप्रीम कोर्ट के जज विक्रम नाथ, जस्टिस प्रसन्ना बी वाराले की पीठ ने ये अहम फैसला सुनाया. उन्होंने साफ किया कि अगर आरोपी शख्स ने अपनी हरकतों के जरिये महज गुस्से का इजहार किया है या प्रताड़ित किया है तो इसको आत्महत्या के लिए उकसाने वाले दायरे में शायद न देखा जाए.
एक और बात, इस तरह अदालत ने आरोपी व्यक्ति को आईपीसी की धारा 306 से मुक्त तो कर दिया लेकिन सेक्शन 498A के तहत लगे आरोपों को खारिज करने से इनकार कर दिया.
SC की पुरानी बातें, BNS का नया कानून
सुप्रीम कोर्ट इस साल अक्टूबर के महीने में और पिछले साल नवंबर-दिसंबर में भी ऐसी ही कुछ एक और व्याख्या कर चुका है, जहां अदालत ने माना था कि महज उकसावे का आरोप काफी नहीं होगा. बल्कि आरोप लगाने वाले को यह दिखाना होगा कि वह उकसावा ऐसा था जिसके बाद उस शख्स के पास आत्महत्या के अलावा और कोई रास्ता ही न बचा.
आईपीसी की धारा 306 अब भारतीय न्याय संहिता में धारा 108 हो गई है. जिसमें गैर-जमानती वारंट, सत्र अदालत में उसका ट्रायल, 10 साल की सजा और जुर्माना का प्रावधान है.
भारतीय न्याय संहिता की नई नवेली धारा 108 कहती है कि अगर कोई शख्स किसी व्यक्ति को आत्महत्या के लिए प्रोत्साहित करता है या फिर ऐसा करने में उसकी मदद करता है तो उसे दस साल कैद की सजा और जुर्माना हो सकती है. मगर अब इस धारा 108 की भी व्याख्या आगे के मामलों में जाहिर है सुप्रीम कोर्ट की ओर से कही गई हालिया टिप्पणियों की रौशनी में देखी जाएंगी.
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