अमेरिका से ब्रिटेन और फ्रांस से ईरान तक…2024 में दुनिया के बड़े राजनीतिक धुरंधरों की सियासी जड़ें पड़ रहीं कमजोर
पूरी दुनिया के करीब 70 देशों में साल 2024 में चुनाव हो रहे हैं. इस साल को चुनावों का साल भी कहा जा रहा है, कहीं चुनाव हो चुके हैं तो कहीं जारी है. जानकार मान रहे हैं कि ये साल दुनिया में कई बदलाव लाएगा क्योंकि दुनिया में अपना प्रभाव रखने वाले बड़े देशों में भी इसी साल चुनाव हैं और वहां का राजनीतिक परिप्रेक्ष्य (Perspective) बदल रहा है. मतदान के लिहाज से दुनिया के सबसे बड़े चुनाव समझे जाने वाले भारत और यूरोपीय यूनियन के चुनाव भी इस साल हुए हैं. जहां यूरोपीय यूनियन में सेंटरिस्ट पार्टियों के हाथ से सत्ता राइट विंग पार्टियों के पास आई, वहीं भारत में प्रधानमंत्री मोदी लगातार तीसरी बार सत्ता पर काबिज हुए.
संयुक्त राष्ट्र में वीटो पावर रखने वाले देश अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस में भी इस साल चुनाव हो रहे हैं. चुनाव से पहले सामने आए ओपिनियन पोल और सर्वों से जाहिर हो रहा है कि यहां की राजनीति में बदलाव आने वाला है. इस बदलाव पर सबकी नजर यूं भी है क्योंकि इन देशों का नेतृत्व पूरी दुनिया में व्यापार, जंग, इमिग्रेशन, मानव सहायता आदि जैसे मुद्दे पर प्रभाव डालता है. इन देशों को चुनौती देने वाले ईरान में भी चुनाव हो रहे हैं और वहां की फिजा भी बदली हुई नजर आ रही है. धार्मिक कट्टरता और महिला विरोधी कानूनों से जूझ रही ईरान की जनता भी इस साल सरकार बदलने के मूड में दिख रही है.
फ्रांस और अमेरिका में दक्षिणपंथियों का दबदबा
2020 में ट्रंप को हराने के बाद जो बाइडेन ने अमेरिका की सत्ता संभाली थी. उस वक्त अफगान से सेना की वापसी और कोराना काल में खराब मैनेजमेंट अहम मुद्दा बन गए थे. चुनाव के साल में कोरोना से मरने वालों की तादाद 2 लाख से ऊपर पहुंच गई थी और करीब 90 लाख लोग कोरोना का शिकार हुए थे. इस दौरान जॉब्स का जाना और महंगाई भी ट्रंप की हार का सबब बनी थी.
अमेरिका में इस साल जो बाइडेन की बढ़ती उम्र और गाजा, यूक्रेन युद्ध में उनकी नाकामी ट्रंप के लिए मुफीद (Favorable) साबित हो रही है. हाल ही में आए वॉल स्ट्रीट जर्नल (WSJ) की रिपोर्ट में बताया गया है कि डोनाल्ड ट्रंप ने पहली राष्ट्रपति बहस के बाद बाइडेन पर लीड बना ली है.
सर्वे में शामिल हुए 80 फीसदी लोगों ने माना है कि बाइडेन अपनी उम्र के कारण देश का नेतृत्व करने के काबिल नहीं रहे हैं. ट्रंप को एक दक्षिणपंथी सोच का नेता कहा जाता है जो प्रवासियों के लिए सख्त रुख रखते हैं. इस चुनाव में उन्हें अमेरिका का नेतृत्व करने के लिए मजबूत दावेदार समझा जा रहा है.
फ्रांस में दूसरे विश्व युद्ध के बाद ऐसा पहली बार हो रहा है जब कोई दक्षिणपंथी पार्टी सरकार बनाने की ओर बढ़ रही है. पहले राउंड के नतीजों के मुताबिक, राइट विंग पार्टी नेशनल रैली 33.1 वोटों के साथ पहले नंबर रही है. वहीं वामपंथी अलायंस को 28 फीसदी और फ्रांसीसी राष्ट्रपति मैक्रों की पार्टी रेनासेंस 20.7 फीसदी वोट हासिल कर तीसरे स्थान पर ही रह गए है. फ्रांस की जनता इस बार मैक्रों को झटका देती हुई दिख रही और नेशनल रैली के चीफ ले पेन को अपना अगला नेता चुनने की राह पर है.
ब्रिटेन वामपंथ की तरफ तो ईरान में उदारवादी आगे
यूरोपीय संघ में अपना वर्चस्व रखने वाले ब्रिटेन में भी इस बार उलटफेर होता दिख रहा है. चुनाव से पहले Mygov के ओपिनियन पोल में सामने आया है कि भारतीय मूल के पीएम ऋषि सुनक से न ही भारतीय समुदाय खुश है और न ही स्थानीय खुश हैं. वहीं वामपंथी ख्याल वाले केर स्टार्मर इस चुनाव में जनता को खूब पसंद आ रहे हैं और लेबर पार्टी करीब 14 साल बार सत्ता में वापसी करने जा रही है.
ऋषि गोरो को खुश करने के लिए ब्रिटेन में ‘रवांडा योजना’ लेकर आए थे, जिससे अप्रवासियों के लिए ब्रिटेन में रहना जटिल हुआ है. उनके इस योजना से गोरे तो इतने खुश नहीं हुए लेकिन उनके एशियाई वोटर्स भी उनके खिलाफ हो गए हैं. केर स्टार्मर को गोरो और एशियाई दोनों का खूब समर्थन मिल रहा है.
ईरान में हसन रूहानी के दस साल के शासन के 3 साल बाद ईरान की जनता एक बार फिर किसी उदारवादी नेता को अपना राष्ट्रपति चुनने जा रही है. राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी की मौत के बाद 28 जून को हुए मतदान में उदारवादी नेता मसूद पेजेशकियन ने 10.4 मिलियन यानी 42 फीसद वोट हासिल किए हैं. वहीं कट्टरपंथी नेता सईद जलीली को महज 9.4 मिलियन यानी 38.6 फीसद वोट ही मिले हैं.
अगर रन ऑफ राउंड में भी मसूद पेजेशकियन जीतते हैं तो ये मध्य पूर्व में बड़ा बदलाव ला सकता है. क्योंकि मसूद पेजेशकियन पश्चिमी देशों के साथ बातचीत करने की हिमायत करते आए हैं. उनका कहना है कि बिना बातचीत करें आप ईरान को तो मजबूत दिखा सकते हो पर ईरान की जनता का क्या जो प्रतिबंधों के कारण जॉब्स की कमी, महंगाई और कई अन्य परेशानियां झेल रही है.
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