फिलिस्तीन और इजराइल का विवाद दशकों से चला आ रहा है. इजराइल की स्थापना के बाद से ही अरब देश और दुनिया भर के मुसलमान इजराइल के खिलाफ रहते हैं. लेकिन हाल में जारी गाजा जंग में बड़े पैमाने पर हुई फिलिस्तीनी लोगों की मौतों के बाद कुछ पश्चिमी देश भी मानवीय आधार पर फिलिस्तीन के साथ खड़े नजर आए हैं. गाजा जंग शुरू होने के बाद के डेटा के मुताबिक, UN के 193 देशों में से करीब 146 देशों ने फिलिस्तीन को एक आजाद राष्ट्र के तौर पर मान्यता दी है, इन देशों में यूरोप के भी 10 देश शामिल हैं. भारत भी युद्ध में हो रहे मानवीय नुकसान के लिए फिलिस्तीन को समर्थन देता आया है. एआईएमआईएम सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने संसद में अपनी शपथ के दौरान जय फिलिस्तीन कहा तो इस पर बवाल मच गया. वहीं, वर्ल्ड लेवल पर फिलिस्तीन के मुद्दे को समझा जाए तो ये एक देश के साथ-साथ धर्म का मामला भी है.
इजराइल के कई लीडर्स ने माना है कि गाजा जंग वैश्विक स्तर पर इजराइल के लिए एक रणनीतिक हार है. गाजा में इजराइल के हमलों से बने मानवीय संकट के बाद दुनिया भर से फिलिस्तीन के लिए सहानुभूति और समर्थन आना समझने योग्य है, लेकिन दश्कों से मुसलमानों के फिलिस्तीन को बिना शर्त समर्थन करने की वजह क्या है? आखिर ऐसी क्या वजह है, जो संयुक्त राष्ट्र की तमाम कोशिशों के बाद भी फिलिस्तीन और इजराइल का टकराव खत्म नहीं हो पाया है, इसी को इस लेख में जानने की कोशिश करते हैं.
विवाद की शुरुआत
दूसरे विश्व युद्ध के बाद यहूदियों ने धर्म के नाम पर अपने एक देश की मांग तेज कर दी थी. 1941 से 1945 तक जर्मनी में यहूदियों के साथ हुए नरसंहार से बचने के लिए लाखों यहूदियों ने जर्मन से भाग यूरोप और दुनिया के दूसरे देशों में शरण ली. हालांकि, इन देशों में से कुछ में पहले से यहूदी धर्म को मानने वाले रहते थे. फिलिस्तीन में अरब मूल के यहूदी पहले से रहते थे और यहां यहूदी धर्म के सबसे पुराने मंदिर की वेस्टर्न वॉल भी मौजूद है जहां वे पूजा किया करते हैं.
इस वक्त फिलिस्तीन पर ब्रिटिशर्स की हुकूमत थी और उन्होंने 1940 के आखिर में दुनिया भर से यहूदियों को फिलिस्तीन में बसाना शुरू किया. मई 1948 में यहूदी एजेंसी के चीफ डेविड बेन गुरियन ने इजराइल स्टेट की घोषणा कर दी. स्थापना की घोषणा के दिन ही अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति हैरी एस. ट्रूमैन ने इसको मान्यता दे दी.
जिसके अगले ही दिन पहली अरब इजराइल जंग छिड़ गई. इजराइल की स्थापना के बाद ही फिलिस्तीनी कस्बों से फिलिस्तीनी लोगों को निकालना शुरू हुआ, जिसे ‘नकबा’ के नाम से जाना जाता है. अल-जजीरा की खबर के मुताबिक, इस नकबे में करीब 7 लाख 50 हजार फिलिस्तीनियों को विस्थापित होना पड़ा था और हजारों को मार दिया गया था.
कुछ जानकारों का मानना है कि नकबा की शुरुआत दशकों पहले 1799 में हुई थी, जब फ्रांसीसी राजा नेपोलियन ने अरब पर आक्रमण किया था. नेपोलियन ने उस वक्त एक घोषणा जारी की, जिसमें फ्रांस के संरक्षण में यहूदियों को फिलिस्तीन की जमीन पर एक देश की पेशकश की गई थी.
फिलिस्तीन से मुसलमानों का कनेक्शन
दुनियाभर के मुसलमान सिर्फ इसलिए ही फिलिस्तीन का साथ नहीं दे रहे कि वहां रहने वाले ज्यादातर मुसलमान हैं. येरूशलम में मौजूद ‘मस्जिद-अल अक्सा’, मक्का और मदीना की मस्जिद के बाद इस्लाम का तीसरा पवित्र स्थान माना जाता है. मुसलमानों की मान्यता है कि यहीं से पैगंबर मोहम्मद बुर्राक़ (घोड़े जैसा पवित्र जानवर) पर सवार होकर मेराज के सफर पर गए थे, मेराज का सफर पैगंबर मोहम्मद की अल्लाह से मुलाकात के लिए की गई यात्रा को कहते हैं.
वहीं ये जगह यहूदी धर्म के लिए भी बेहद खास है. यहूदियों का मानना है कि उनके मसीहा जो पूरी दुनिया में यहूदी धर्म की हुकूमत कायम करेंगे, वो भी इसी जगह पर आएंगे जहां मस्जिद-अल अक्सा बनी हुई है. इसलिए कई कट्टरपंथी यहूदी, मस्जिद अल अक्सा को गिराने की बात करते रहते हैं. दक्षिणपंथी यहूदियों के मुताबिक, मसीहा के आने के लिए ‘थर्ड टेंपल’ को बनाना जरूरी है और वे मस्जिद-अल अक्सा को तोड़ कर उसकी जगह पर बनाया जाएगा.
इन्हीं सब वजहों से फिलिस्तीनी प्रदर्शनों का केंद्र मस्जिद अल अक्सा बनी रहती है और हमास के 7 अक्टूबर को किए गए ऑपरेशन का नाम भी अल-अक्सा फ्लड था.
ईसाइयों के लिए भी है खास
अक्सा कंपाउंड तीन हिस्सों में बंटा हुआ है, जिसमें एक हिस्सा अर्मेनियाई कम्युनिटी का है. अर्मेनियाई लोग भी ईसाई होते हैं, यहां पर ईसाइयों की ‘द चर्च आफ द होली सेपल्कर’ मौजूद है. यह दुनिया भर के ईसाइयों की आस्था का प्रमुख केंद्र है, यहीं पर ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाया गया था.
येरूशलम में ईसाई धर्म के लोग अच्छी तादाद में रहते हैं. हालांकि, ईसाई धर्म के लोगों का सीधे तौर पर यहूदियों से कोई विवाद नजर नहीं आता है. लेकिन कई बार इजराइली सेटलर्स और इजराइली पुलिस ईसाई धर्म के लोगों को चर्च जाने से रोकती हुई नजर आई है.
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