बोगस वोटिंग रोकने के लिए हुई थी वोटर आईडी की शुरूआत, कानूनी मान्यता में लग गए 30 साल

देश में आज हर मतदाता को वोटर आईडी मिल चुकी है. यह आईडी वोटिंग के लिए तो मान्य है ही, भारत और नेपाल में पहचान पत्र का भी एक विकल्प है. वैसे तो देश में वोटर आईडी देश के दूसरे लोकसभा चुनाव के तत्काल बाद ही अस्तित्व में आ गया था, लेकिन इसे कानूनी मान्यता मिलने में 30 साल से भी अधिक का समय लग गया. चूंकि यह देश में फर्जी वोटिंग रोकने के लिए इस विशेष पहचान पत्र की परिकल्पना की गई थी, इसलिए किसी भी राजनीतिक दल ने इसे कानूनी रूप देने में गंभीरता नहीं दिखाई.

आखिरकार 1990 में जब देश के मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन बने तो उन्होंने देश को इसका महत्व बताया और फिर 1992 में संसद में 1958 के लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन किया गया और इस पहचान पत्र को कानूनी मान्यता मिल सकी. इसके बाद साल 1993 में पहली बार चुनाव आयोग ने मतदाताओं के लिए आधिकारिक तौर पर इस पहचान पत्र को जारी करना शुरू किया. आइए, इस कहानी में इसी वोटर आईडी के सफर को जानने और समझने की कोशिश करते हैं.

मतदाताओं की पहचान बड़ी चुनौती

देश में जब पहली बार चुनाव हुए तो चुनाव आयोग को कई सारी चुनौतियों का सामना करना पड़ा था. सबसे बड़ी चुनौती मतदाता लिस्ट बनाने और इस लिस्ट के मुताबिक मतदान कराने की थी. दरअसल इस लिस्ट में कई महिला मतदाताओं ने अपना नाम ‘फलां बच्चे की मां’ या ‘फलां व्यक्ति की जोरू’ लिखाया था. ऐसे में खूब बोगस वोटिंग हुई थी. इसे रोकने के लिए चुनाव आयोग ने दूसरे लोकसभा चुनाव में काफी प्रयास किए, लेकिन कोई खास सफलता नहीं मिली तो तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन ने स्पेशल वोटर आईडी बनाने की योजना बनाई.

1960 में लांच हुआ पायलट प्रोजेक्ट

इस योजना को उन्होंने बतौर पायलट प्रोजेक्ट 1960 में लांच भी किया. उस समय दक्षिण कोलकाता लोकसभा सीट पर उपचुनाव हो रहे थे. इसके लिए दस महीने तक अभियान चलाकर चुनाव आयोग मुश्किल से 65 फीसदी मतदाताओं की 2 लाख 13 हजार 600 आईडी छाप पाया. दरअसल, इसमें भी बड़ी बाधा ये थी कि महिला मतदाता किसी हाल में फोटो खिंचाने को तैयार नहीं थी. इसके अलावा अभियान के दौरान बड़ी संख्या में वोटर कामकाज के लिए शहर से बाहर गए हुए थे.

25 लाख रुपये आया था खर्च

ऐसे हालात में यह पायलट प्रोजेक्ट असफल हो गया. हालांकि इस कार्य में करीब 25 लाख रुपये उस समय खर्च हुए थे. पायलट प्रोजेक्ट की असफलता के बावजूद चुनाव आयोग ने हार नहीं मानी और इसकी खामियों को दूर करते हुए नए सिरे से प्रोजेक्ट बनाया. इस बार चुनाव आयोग की कोशिश थी कि हर हाल में वोटर आईडी बनाना है. चूंकि यह व्यवस्था बोगस वोटिंग रोकने के लिए थी, इसलिए कोई भी राजनीतिक दल इसे गंभीरता से नहीं ले रहा था.

दूसरी बार सिक्कम में हुआ ट्रॉयल

बावजूद इसके चुनाव आयोग ने 1979 में सिक्किम के विधानसभा चुनावों में अजमाया. यहां काफी हद तक सफलता मिली तो असम, मेघालय और नागालैंड में मतदाताओं को वोटर आईडी जारी किया गया. इसी बीच 1990 में देश के मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन बने. उन्होंने कुर्सी संभालने के साथ ही चुनाव सुधार प्रक्रिया शुरू कर दी. इसके लिए उन्होंने पहली कोशिश बोगस वोटिंग रोकने की थी.

टीएन शेषन की वजह से बन पाया कानून

उन्होंने वोटर आईडी का महत्व बताते हुए सरकार को इसे कानूनी रूप देने का आग्रह किया. फिर 1992 में संसद में लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन किया और अतंत: 1993 में इसे वोटर आईडी को कानूनी मान्यता मिल गई. हालांकि उस समय वोटर आईडी कागज पर ब्लैक एंड ह्वाइट छाप कर मतदाताओं को दी जाती थी. साल 2015 में पहली बार चुनाव आयोग ने प्लास्टिक की कलर प्लेट पर छापना शुरू किया.

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