उत्तर प्रदेश में बीजेपी से मुकाबला करने के लिए कांग्रेस और सपा एक साथ आ गई हैं. अमेठी और रायबरेली की सीट को बचाए रखने के लिए कांग्रेस ने 17 सीटों पर अखिलेश यादव के साथ समझौता किया है. इसके बाद से उम्मीदवारों को लेकर मंथन चल रहा है, लेकिन अभी तक कुछ तय नहीं हो पाया है जबकि लोकसभा चुनाव का ऐलान हो चुका है. 25 साल पहले सांसद बनीं सोनिया गांधी इस बार चुनावी मैदान में नहीं होंगी. रायबरेली व अमेठी सीट से गांधी परिवार के चुनाव लड़ने पर सस्पेंस बना हुआ है. गांधी परिवार अगर अमेठी और रायबरेली सीट से चुनाव नहीं लड़ता है तो कांग्रेस यूपी में कहीं जीरो पर न सिमट जाए?
यूपी में सपा और कांग्रेस के बीच समझौते में कांग्रेस को अमेठी-रायबरेली सहित 17 सीटें मिली हैं जबकि सपा को 63 सीटें मिली है. सपा ने अपने कोटे से एक सीट टीएमसी के लिए छोड़ दी है.सीट शेयरिंग में कांग्रेस के हिस्से में रायबरेली, अमेठी, कानपुर, फतेहपुर सीकरी, बांसगांव, झांसी, सीतापुर, सहारनपुर, प्रयागराज, महराजगंज, वाराणसी, अमरोहा, बुलदंशहर, गाजियाबाद, मथुरा, बाराबंकी और देवरिया सीट आई हैं. सपा से हाथ मिलाने के बाद भी कांग्रेस की राह आसान नहीं दिख रही है.
यूपी में खाता खुलना मुश्किल हो जाएगा?
कांग्रेस के हिस्से में आई 17 सीटों से रायबरेली ही सीट जीतने में कामयाब रही थी. सोनिया गांधी जीती थी, लेकिन वो राज्यसभा चुने जाने के बाद अब चुनावी राजनीति से दूर हो गई हैं. TV9 भारतवर्ष-पोलस्ट्रेट के एग्जिट में कांग्रेस 2024 में यूपी में एक ही सीट जीतती हुई नजर आ रही है, वो रायबरेली सीट है. यह सर्वे उस समय का है जब रायबरेली सीट से प्रियंका गांधी और अमेठी से राहुल गांधी के चुनाव लड़ने की चर्चा थी, लेकिन अब खबर आ रही है कि गांधी परिवार अपने परंपरागत सीट से नहीं उतरेगा. अगर वाकई गांधी परिवार अमेठी-रायबरेली से चुनाव नहीं लड़ता तो कांग्रेस का यूपी में खाता खुलना मुश्किल हो जाएगा?
दरअसल, कांग्रेस यूपी में पिछले साढ़ तीन दशक से सत्ता से बाहर है और दिन ब दिन कमजोर होती जा रही है. 2019 में राहुल गांधी अमेठी लोकसभा सीट से चुनाव हार गए थे और सिर्फ सोनिया गांधी ही रायबरेली से जीती थी. 2022 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस महज दो सीटें ही जीत सकी है. ऐसे में कांग्रेस सूबे में सबसे निचले पायदान पर खड़ी नजर आ रही है, जिसके चलते मुख्य विपक्षी दल सपा के साथ गठबंधन कर 2024 के चुनावी रण में उतरने का फैसला किया.
सपा के साथ भले ही कांग्रेस गठबंधन कर चुनाव लड़ रही है, लेकिन उसकी सियासी राह आसान दिखाई तो नहीं देती है. इसकी वजह यह है कि कांग्रेस के हिस्से में जो सीटें आई हैं, उनमें से पांच तो ऐसी हैं, जिन पर पार्टी 1984 में आखिरी बार जीती थी. चार दशक से कांग्रेस पर जीत नहीं सकी. इसके अलावा दो सीटें तो ऐसी हैं, जिन पर कांग्रेस का अब तक खाता ही नहीं खुला. कांग्रेस के हिस्से में आई 17 में से एक सीट ही 2019 में जीती थी और तीन सीटों पर नंबर दो रही थी जबकि बाकी सीट पर जमानत भी नहीं बचा सकी थी.
चार दशक से कांग्रेस नहीं जीती चुनाव
यूपी में कांग्रेस जिन 17 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने की मशक्कत कर रही है, उसमें से पांच सीट पर दशक से जीत का स्वाद नहीं चखा. सहारनपुर में आखिरी बार कांग्रेस के यशपाल सिंह 1984 में सांसद चुने गए थे. प्रयागराज सीट पर भी से अमिताभ बच्चन ने 1984 में आखिरी बार जीते थे. ऐसे ही अमरोहा सीट पर भी कांग्रेस 1984 में जीती थी, देवरिया सीट पर भी राज मंगल पांडेय कांग्रेस के आखिरी सांसद रहे. बुलंदशहर सीट पर आखिरी बार 1984 में सुरेंद्रपाल सिंह कांग्रेस के सांसद चुने गए थे.
इंदिरा गांधी के निधन के बाद 1984 लोकसभा चुनाव हुआ था और शोक के लहर में कांग्रेस यह सीटें जीती थी. इसके बाद से कांग्रेस इन 5 सीटों पर फिर दोबारा कभी चुनाव नहीं जीती. पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की इन पांचों सीटों पर अपनी जमानत भी नहीं बचा सकी थी. गठबंधन में कांग्रेस ने यह सीटें भले ही अपने खाते में ले ली हो, लेकिन मोदी लहर और राममय माहौल में पार्टी के लिए ये सीटें जीतने आसान नहीं दिख रहा है.
सहारनपुर सीट पर इमरान मसूद, अमरोहा सीट से कुंवर दानिश अली और प्रयागराज से अनुग्रह नारायण व आरधना मिश्रा के चुनाव लड़ने की संभावना है. देवरिया से अखिलेश प्रताप सिंह और अजय लल्लू में से कोई एक प्रत्याशी बन सकता है. इमरान मसूद दो दशक से कोई चुनाव नहीं जीत सके हैं और दानिश अली 2019 में सपा-आरएलडी गठबंधन के तहत बसपा से जीते थे. दानिश अली के लिए इस बार राह आसान नहीं है. बुलंदशहर में कांग्रेस कोई नामी चेहरा तक नहीं मिल पा रहा है, जिसे चुनाव लड़ा सके.
कांग्रेस जिन सीट पर नहीं खोल सकी खाता
सीतापुर लोकसभा कांग्रेस के हिस्से में आई है, जहां पार्टी आखिरी बार कांग्रेस 1989 में लोकसभा चुनाव में जीती थी. राजेंद्र कुमारी वाजपेई तक सांसद चुनी गई थीं. इसके बाद से कांग्रेस के लिए यहां सूखा ही रहा है. कांग्रेस बासगांव सीट पर 2019 के लोकसभा चुनाव ही नहीं लड़ी थी. आखिरी बार पार्टी 2004 में यह सीट जीती थी. 15 साल से बीजेपी का बासगांव पर कब्जा है. 2009 में अस्तित्व में आईं गाजियाबाद और फतेहपुर सीकरी सीट पर अबतक कांग्रेस का खाता तक नहीं खोल सकी है. कांग्रेस को मिली 17 सीटों में से 12 सीटों पर उसकी अपनी जमानत तक नहीं बची. सपा से गठबंधन के बाद भी कांग्रेस के लिए यह सीट आसान नहीं दिख रही है.
बता दें कि सपा के साथ गठबंधन में मिली 17 में से 11 सीटों पर कांग्रेस पिछले दो दशक से खाता तक नहीं खोल पाई हैं. केवल अमेठी और रायबरेली को छोड़ दें तो, चार लोकसभा सीटें ऐसी हैं, जहां पर पार्टी ने 2009 में जीत हासिल कर सकी थी. यह सीट कानपुर, महाराजगंज,झांसी और बाराबंकी है. इसके अलावा वाराणसी और मथुरा सीट दो दशक से पार्टी चुनाव नहीं जीत पाई है जबकि झांसी और बाराबंकी सीट पर आखिरी बार 2009 में चुनाव जीती थी.
कांग्रेस तलाश रही मजबूत प्रत्याशी
बांसगांव संसदीय सीट पर पार्टी ने बसपा सरकार में पूर्व मंत्री रहे और कद्दावर नेता सदल प्रसाद को पार्टी ज्वाइन कराया था. महाराजगंज में टिकट की दावेदारी को बढ़ाने के लिए पूर्व बाहुबली नेता और मंत्री रहे अमरमणि त्रिपाठी के बेटे अमन मणि को पार्टी ज्वाइन कराई गई है. इसी तरह पार्टी कानपुर सीट पर नए प्रत्याशी को ढूंढ रही है. इस सीट पर पार्टी के प्रबल दावेदार माने जा रहे अजय कपूर ने बीजेपी ज्वाइन कर लिया है. इसी तरह वाराणसी से सांसद रहे राजेश मिश्रा भी कांग्रेस छोड़कर बीजेपी का दामन थाम चुके हैं, सीतापुर सीट पर पार्टी लखीमपुर के पूर्व सांसद रहे रवि वर्मा की बेटी पूर्वी वर्मा को प्रत्याशी बन सकती है. बाराबंकी लोकसभा सीट से पीएल पुनिया के बेटे तनुज पुनिया मैदान में उतर सकते हैं.
कांग्रेस कई सीटों पर अपने मजबूत चेहरों को चुनावी मैदान में उतारना चाहती है, लेकिन वो तैयार नहीं है. यह महराजगंज, मथुरा और फतेहपुर सीकरी शामिल है. पार्टी चाहती थी कि महराजगंज से सुप्रिया श्रीनेत लड़ें, लेकिन फिलहाल उन्होंने लड़ने के लिए हामी नहीं भरी है. मथुरा से प्रदीप माथुर के भी सुर बदले नजर आ रहे हैं. फतेहपुर सीकरी से राज बब्बर कांग्रेस की उम्मीदवारी करते रहे हैं, लेकिन इस बार मैदान से बाहर हैं. कांग्रेस अब इन सीटों पर उम्मीदवार तलाशने में जुटी है, लेकिन सबसे ज्यादा चिंता वे सीटें बढ़ा रही हैं, जहां कांग्रेस का ट्रैक रेकॉर्ड खासा खराब रहा है.
कांग्रेस के हाथ से रायबरेली सीट जाने का खतरा
कांग्रेस की सबसे मजबूत माने जाने वाली सीटों में रायबरेली और अमेठी शामिल है. इस बार रायबरेली लोकसभा सीट से सोनिया गांधी चुनाव नहीं लड़ रही है. गांधी परिवार के अमेठी और रायबरेली सीट से चुनाव लड़ने पर सस्पेंस बना हुआ. ऐसे में गांधी परिवार अगर चुनावी मैदान में नहीं उतरता है तो फिर अमेठी की तरह रायबरेली सीट भी उसके हाथों से निकल सकती है. 2019 के लोकसभा चुनाव में सोनिया गांधी के जीत का मार्जिन में काफी कमी आई है. अमेठी और रायबरेली के स्थानीय कांग्रेस नेता बड़ी संख्या में बीजेपी का दामन थाम चुके हैं, जिसके चलते ही चिंता का सबब बना हुआ है.
ऐसे में सपा ने कांग्रेस को वो सीटें दी है, जिस पर उसकी स्थिति कमजोर रही थी. कांग्रेस ने भले ही 17 सीटें ले ली है, लेकिन न मजबूत कैंडिडेट तलाश पा रही है और न ही जीत के लिए आश्वस्त दिख रही है. ऐसे में कांग्रेस जीरो पर आउट हो जाए तो कोई आश्चर्य चकित नहीं है. कांग्रेस 1977 में यूपी में महज एक सीट ही जीत सकी थी और उसके बाद 2019 में रायबरेली एकलौती सीट सोनिया गांधी जीती थी. इस बार बदले हुए सियासी माहौल में कांग्रेस की सियासी जमीन सिकुड़ती जा रही है. गांधी परिवार रायबरेली और अमेठी का सियासी मैदान छोड़ देता है तो फिर कांग्रेस के लिए काफी मुश्किल हो सकती है?
Comments are closed, but trackbacks and pingbacks are open.