प्रसन्न होंगे गुरु देव? संगम की रेती पर अग्नि साधना में बैठा साधु…देखकर खड़े हो जाएंगे रोंगटे

चारों ओर से आग की लपटें और बीच में बैठे साधु की साधना. यह दृष्य आपको हैरान कर सकते हैं, लेकिन दिगंबर अनी अखाड़े के साधुओं के लिए यह आम बात है. इस अखाड़े के साधु अपने गुरु को प्रसन्न करने के लिए इस तरह की साधना पद्धति अपनाते हैं. वैसे तो यह साधना 18 वर्षों की है, लेकिन यह दृष्य इस साधना का प्रथम चरण है. इस समय प्रयागराज में संगम की रेती पर इसी पद्धति से साधना करते साधु की खूब चर्चा हो रही है. कौतुहलवस लोग साधु और उनकी साधना को देखने के लिए अखाड़े में आ रहे हैं और उन्हें नमन कर प्रसाद ग्रहण कर रहे हैं.

बता दें कि प्रयागराज में माघ मेला त्याग और तपस्या के साथ विभिन्न साधनाओं के संकल्प का पर्व है. यहां इस समय एक साधु अग्नि साधना पर बैठै हैं. अपने चारों तरफ गोल घेरे में आग की ज्वाला सुलगाकर बीच में बैठे साधु इस समय मेले में आने वाले श्रद्धालुओं के लिए कुतुहल का विषय बन गए हैं. वैसे तो यहां आने वाला हरेक श्रद्धालु कोई ना कोई साधना जरूर करता है, लेकिन मेला परिसर में इन तपस्वियों की साधना गजब की है.

गुरु को प्रसन्न करने की परीक्षा

दिगंबर अखाड़े में अग्नि साधना गुरु महंत गोपाल दास कहते हैं यह एक तरह से शिष्य की अग्नि परीक्षा है. अग्नि साधना वैष्णव अखाड़ों के सिरमौर दिगंबर अनी अखाड़े के अखिल भारतीय पंच तेरह भाई त्यागी खालसा के साधकों की विशेष साधना है. उन्होंने बताया कि यह साधना अलग अलग चरण में अठारह वर्षों की होती है. प्रथम चरण में साधक अग्नि प्रज्ज्वलित करने के लिए गाय के गोबर से बने उपले एकत्र करता है. फिर तपोस्थली का चयन कर गंगाजल से अभिसिंचित करता है और एक गोल घेरे में उपले सजा कर अग्नि प्रज्जवलित करता है.

6 चरणों में पूरा होता है अनुष्ठान

वहीं जब आग की लपटें प्रचंड होती है तो वह साधक ठीक बीच में जाकर अपनी साधना में बैठ जाता है. यह प्रक्रिया रोज सुबह दोहराई जाती है और यह क्रम वसंत पंचमी से शुरू होकर ज्येष्ठ गंगा दशहरा तक तीन साल तक अनवरत चलता है. इसके बाद दूसरा चरण शुरू होता है. अग्नि स्नान के छह चरणों में क्रमश: अभ्यास का क्रम बढ़ता जाता है और प्रत्येक चरण के साथ अनुष्ठान और कठिन होता जाता है. अठारह वर्षों की अखंड तप की साधना में तीन-तीन वर्षों की साधना अलग-अलग चरणों के नाम से होती है.

खतरनाक हो सकती है खप्पर धूनी

पंच धूनी की तपस्या में साधक अपने चारों ओर पांच धूनी जलाते हैं. इसके बाद सप्तधूनी, द्वादश धूनी, चौरासी धूनी, कोटि धूनी और अंत में कोटि खप्पर से तपस्या का संकल्प पूरा होता है. कोटि खप्पर में तो सिर पर आग रखकर 108 बार आहुतियां डाली जाती हैं. दिगंबर अखाड़े के साधुओं के मुताबिक धूनि रमाने का यह अनुष्ठान वैष्णव अखाड़े के एक साधु के लिए वैराग्य की प्रथम प्रक्रिया होती है. दूसरे शब्दों में कहें तो यह गुरु के लिए यह अपने शिष्य की प्रथम परीक्षा होती है.

Comments are closed, but trackbacks and pingbacks are open.