खंडवा । मां नर्मदा के तट और ज्योर्तिलिंग भगवान ओंकारेश्वर के आंगन में मात्र आठ साल की उम्र में आचार्य शंकर ने अपने गुरु गोविंदपादाचार्य से दीक्षा प्राप्त कर वेदांत और उपनिषद की रचना की थी। ओंकारेश्वर में ही उन्होंने मां नर्मदा के रौद्र रूप को शांत करने के लिए ही नर्मदाष्टक रचा था। इस धन्य भूमि पर उनकी स्मृतियों को अक्षुण्य और चिरस्थाई रखने की मंशा से प्रदेश सरकार द्वारा उनकी 108 फीट ऊंची प्रतिमा, संग्रहालय और एक अंतरराष्ट्रीय अद्वैत वेदांत संस्थान का निर्माण शंकराचार्य प्रकल्प अंतर्गत किया जा रहा है। प्रतिमा स्थापना के लिए फाउंडेशन का कार्य अंतिम चरण में है। सितंबर तक स्टैच्यू आफ वननेस (एकात्मा की प्रतिमा) स्थापित करने का लक्ष्य है।
त्वदीय पाद पंकजम नमामि देवि नर्मदे ..
नर्मदाष्टक की पंक्तियां सुनकर हर कोई भावविभोर हो जाता है। नर्मदाष्टक की रचना करने वाले आदिगुरु शंकराचार्य की आज जयंती है। आदि शंकराचार्य के नर्मदाष्टक से ही भक्त मां नर्मदा की स्तुति करते हैं। बताया जाता है कि ओंकारेश्वर आश्रम में गुरु गोविंदपादाचार्य साधनारत थे। तभी मां नर्मदा के रौद्र स्वरूप की वजह से जनजीवन जल प्लवित होने लगा। साधना में लीन गुरु तक नर्मदा का पानी पहुंचने से रोकने के लिए शंकराचार्य ने नर्मदाष्टक की रचना कर मां से शांत होने की स्तुति की थी।
कम उम्र में वेदांत और उपनिषद देने वाले केरल के आचार्य शंकर को शंकराचार्य बनाने वाली पवित्र धरा मध्य प्रदेश की है। वे अमरकंटक के रास्ते मध्य प्रदेश पहुंचे थे। उन्होंने यहीं दीक्षा ग्रहण कर संन्यास की राह चुनी थी। आचार्य शंकर ने 16 साल की उम्र में वेदांत दर्शन की व्याख्या कर सहस्त्राधिक रचना रची थीं। देश के चारों कोनों पर चार पीठों की स्थापना करके भारतीयता को एक सूत्र में पिरोया। जिनसे हमारी सनातनी संस्कृति का प्रवाह अविरल हो रहा है।
महेश्वर में किया था शास्त्रार्थ
मध्य प्रदेश की भूमि पर ही आचार्य शंकर द्वारा समूचा वांगमय रचा गया है। ओंकारेश्वर में गुरु गोविंदपादाचार्य से दीक्षा लेने के कारण यह उनकी दीक्षास्थली है। मालवा के प्रख्यात विद्वान मंडन मिश्र से आचार्य शंकर का महेश्वर में शास्त्रार्थ हुआ था। मान्यता है कि उनकी दक्षिण से उत्तर की यात्रा का वही पथ था जो भगवान राम का चित्रकूट से दंडकारण्य का था।
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