मनी लॉन्ड्रिंग में जल बोर्ड के दो पूर्व अफसरों को सजा, 47.76 लाख रुपये की हेराफेरी में ठहराए गए दोषी

दोनों के खिलाफ ईडी ने दिसंबर 2009 में मामला दर्ज किया था। हालांकि, धनशोधन रोधी एजेंसी ने मार्च 2021 में वर्तमान अदालत में 11 साल से अधिक की देरी और सीबीआई मामले में अभियुक्तों के सजा पूरी करने के लगभग चार साल बाद शिकायत दाखिल की।

राष्ट्रीय राजधानी की एक अदालत ने शनिवार को जारी आदेश में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की ओर से दर्ज धन शोधन के एक मामले में दिल्ली जल बोर्ड (डीजेबी) के दो पूर्व अधिकारियों को तीन साल के सश्रम कारावास की सजा सुनाई। साथ ही, कहा कि अदालत ने मामले में नरम रुख अपनाया है।

विशेष न्यायाधीश अश्विनी कुमार सर्पाल ने राज कुमार शर्मा और रमेश चंद चतुर्वेदी के खिलाफ मामले की सुनवाई की, जिन्हें दिसंबर 2012 में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) अदालत ने डीजेबी से लगभग 47.76 लाख रुपये की हेराफेरी के लिए क्रमशः पांच साल और चार साल कैद की सजा सुनाई थी। दोनों के खिलाफ ईडी ने दिसंबर 2009 में मामला दर्ज किया था। हालांकि, धनशोधन रोधी एजेंसी ने मार्च 2021 में वर्तमान अदालत में 11 साल से अधिक की देरी और सीबीआई मामले में अभियुक्तों के सजा पूरी करने के लगभग चार साल बाद शिकायत दाखिल की।

विशेष न्यायाधीश ने कहा, दोषी पूर्व अधिकारी पहले ही अनुसूचित अपराधों में क्रमशः पांच और चार साल की सजा काट चुके हैं। साथ ही, सीबीआई मामले और अन्य परिस्थितियों में अपने बचाव के लिए गबन या धोखाधड़ी से बनाए गए पैसे पहले ही खर्च कर चुके हैं। इसलिए नरमी बरतते हुए, दोनों आरोपी व्यक्तियों को तीन साल के सश्रम कारावास और पांच-पांच हजार रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई जाती है। इस मामले में ईडी की ओर से विशेष लोक अभियोजक अतुल त्रिपाठी पेश हुए। एजेंसी

नहीं दी जा सकती तीन साल से कम सजा 

कोर्ट ने कहा, आरोपी व्यक्तियों की दलीलों जैसे कि दोनों ने अपनी सरकारी नौकरी खो दी, परिवार की जिम्मेदारी होना, अल्प आय होना और सजा के बाद सुधार पर गौर करते हुए न्यायाधीश ने कहा कि ये वास्तविक कारण हो सकते हैं लेकिन अदालत मजबूर है और तीन साल से कम की सजा नहीं दे सकती। न्यायाधीश ने यह भी कहा कि पीएमएलए के प्रासंगिक प्रावधान के अनुसार, न्यूनतम सजा तीन साल की थी और इसका अर्थ यह था कि अगर अदालत ने बहुत नरम रुख अपनाया, तो भी न्यूनतम कारावास तीन साल से कम नहीं हो सकता। जज ने कहा कि जब किसी कानून के तहत न्यूनतम सजा निर्धारित है, तो अपराधी परिवीक्षा अधिनियम का कोई लाभ नहीं दिया जा सकता है और अदालत के पास न्यूनतम से कम सजा देने की कोई स्वतंत्रता नहीं बचती।

 

Comments are closed, but trackbacks and pingbacks are open.