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कर्नाटक में देवदासियों पर क्यों है उम्र का पहरा? जानिए इस कुप्रथा का A टू Z

देश में प्राचीन समय से समाज में कुछ ऐसी कुरीतियां रही हैं, जिनके चलते अंधविश्वास पनपता रहा है, लेकिन जैसे-जैसे समाज शिक्षित होता गया वैसे-वैसे चीजें बदलती गईं. 21वीं सदी में एक ऐसी परंपरा रही, जो समाज को शर्मसार करने वाली है. इसका नाम देवदासी प्रथा है. इस पर कर्नाटक में 1982 में प्रतिबंध लगाया गया, लेकिन इसके बावजूद इसके मामले सामने आते रहे हैं. अब एक बार ये प्रथा फिर चर्चा में है क्योंकि कर्नाटक के 15 जिलों की देवदासी महिलाओं और बच्चों ने एक मंच बनाकर कर्नाटक देवदासी (रोकथाम, निषेध, राहत और पुनर्वास) 2018 विधेयक को तत्काल लागू करने की मांग की है.

कर्नाटक में देवदासियों के तीसरे सर्वे की तैयारियां चल रही हैं और समुदाय के सदस्यों ने राज्य सरकार से अपील की है कि देवदासियों की पहचान के लिए कोई आयु सीमा न रखे. सर्वे भी घर-घर जाकर कराया जाए. ये अपील बेंगलुरु स्थित नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी (एनएलएसआईयू) ने मुख्यमंत्री सिद्धारमैया से की है. देवदासी महिलाओं के लिए नए सर्वे की मांग लंबे समय से लंबित रही है. हालांकि सरकार ने 2024-2025 के बजट में घोषणा की थी. आइए जानते हैं क्या है देवदासी प्रथा और देवदासी महिलाओं की उम्र की सीमा तय होने से क्या हैं परेशानियां…

सरकार के किस प्रस्ताव की हो रही आलोचना?

अभी हाल ही में कर्नाटक राज्य मानवाधिकार आयोग (एसएचआरसी) ने सरकार को निर्देश दिया है कि वह सर्वे पूरा करे और इस अक्टूबर से पहले सिफारिशें पेश करे. इसके जवाब में महिला एवं बाल विकास विभाग एक सर्वे की तैयारी कर रहा है. हालांकि केवल 45 साल और उससे अधिक आयु की महिलाओं को शामिल करने के विभाग के प्रस्ताव की आलोचना हो रही है.

पूर्व मंत्री एच. अंजनेया ने 1993-94 में हुए पिछले सर्वे में आई समस्याओं पर बात करते हुए कहा कि जो सर्वे अभी तक किए गए हैं उनमें देवदासी महिलाओं और उनके बच्चों की पूरी संख्या का पता नहीं चल पाया क्योंकि कई देवदासी महिलाएं सजा के डर से आगे आने से कतराती हैं, जिसके कारण उन्हें सहायता योजनाओं से वंचित रहना पड़ता है. दरअसल, पिछले सर्वे में आयु-आधारित सीमाओं और अन्य कारणों के चलते सभी देवदासी महिलाओं को शामिल नहीं किया जा सका था. अब समुदाय ने मांग की है कि आगामी सर्वे अधिक व्यापक हो.

कर्नाटक में कितनी देवदासी महिलाएं

कर्नाटक देवदासी महिलाओं को पता लगाने के लिए राज्य सरकार ने पहली बार 1993 से 1994 तक सर्वे किया, जिसमें 22873 महिलाओं का पता लगाया जा सका. इसके बाद 2007 से 2008 के बीच में सर्वे किया गया, जिसमें 46,660 देवदासियों की पहचान की गई. हालांकि, विमुक्त देवदासी महिला मथु मक्काला वेदिके के कॉआर्डिनेटर यमुनारप्पा का दावा है कि जितनी महिलाओं का आंकड़ा राज्य सरकार के पास है उतनी ही छूट गई हैं.

देवदासी महिलाओं का दावा है कि जागरूकता की कमी के कारण उन्हें पता ही नहीं चला कि कभी कोई सर्वे भी कराया गया है. उन लोगों के पास प्रमाण पत्र तो है, लेकिन लिस्ट में नाम न होने के चलते मिलने वाले 2000 रुपए की मासिक पेंशन और पुनर्वास लाभ से वंचित हैं. एनएलएसआईयू के रिसर्चर आर.वी. चंद्रशेखर के मुताबिक, पिछले सर्वे में सरकारी आदेशों में आयु सीमा के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई थी, लेकिन बाद के सर्कुलर में यह बात शामिल की गई. वह चाहते हैं कि सर्वे व्यापक हों और देवदासियों को एकमुश्त पुनर्वास संभव हो.

देवदासी पुनर्वास कार्यक्रम का उद्देश्य

कर्नाटक सरकार का कहना है कि इस कार्यक्रम का उद्देश्य देवदासी कुप्रथा को खत्म करने और इसमें शामिल रही महिलाओं को आर्थिक रूप से सशक्त बनाना है. पशुपालन, छोटी-मोटी दुकान जैसी आय-उत्पादक गतिविधियों में शामिल होने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए 30,000 रुपए की प्रोत्साहन राशि दी जाती है. यह राशि सीधे लाभार्थी के बैंक अकाउंट में ट्रांसफर होती है. पात्र लाभार्थियों का चयन जिले के जिला आयुक्त की अध्यक्षता वाली जिला समिति की ओर से किया जाता है.

राज्य सरकार का पुनर्वास कार्यक्रम खासकर 15 जिलों में चलाया जा रहा है, जिसमें बेलगाम, बीजापुर, बागलकोट, रायचूर, कोप्पल, धारवाड़, हावेरी, गडग, बेल्लारी, गुलबर्गा, दावणगेरे, यादगीर, चित्रदुर्ग, शिमोगा और विजयनगर शामिल हैं. देवदासी प्रथा को खत्म करने के लिए जिलों में जागरूकता, जात्रा जागृति, नुक्कड़ नाटक, दीवार चित्रकारी, स्वास्थ्य शिविर और अन्य कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं.

क्या है देवदासी प्रथा?

कर्नाटक में देवदासी प्रथा को सामाजिक बुराई बताकर 1982 में बैन कर दिया गया. ये प्रथा प्राचीन समय से चली आ रही थी. कहा जाता है कि लड़की के पहले मासिक धर्म से तय हो जाता था कि वह भगवान की सेवा में समय बिताएगी. इस प्रथा में धकेलने के लिए लड़की को दुल्हन की तरह सजाया जाता था और फिर जश्न मनाते हुए मंदिर ले जाया जाता था. मंदिर में वह भगवान की सेवा के साथ संगीत और नृत्य सीखती थी. हालांकि जैसे-जैसे समय बदला और ये प्रथा बदलती चली गई. मासूम लड़कियों का फायदा उठाया जाने लगा और उनके अकेलेपन का फायदा उठाकर शारीरिक संबंध बनाए गए. इसकी एक वजह ये भी रही कि लड़कियों के परिजन उन्हें त्याग चुके थे.

पिछले कुछ सालों में आई मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया गया कि जिन लड़कियों को दुल्हन की तरह सजाकर जश्न मनाया जाता था वो अब बंद हो गया, लेकिन उसकी जगह घर पर ही छुपकर ये गैरकानूनी काम किया जाने लगा. हालांकि अब सरकार बेहद सख्त है.

इस कुप्रथा के लिए किन्हें बनाया गया निशाना?

इस देवदासी प्रथा को लेकर देखा गया है कि अधिकांश मानसिक, शारीरिक रूप से कमजोर लड़कियों को निशाना बनाया गया है. इसके अलावा सामाजिक-आर्थिक रूप से हाशिए पर स्थित समुदायों का शिकार किया गया. परिवार की तरफ से देवदासी लड़कियों को मंजूरी मिली रहती है.

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