हिंदू धर्म में प्रदोष व्रत एक महत्वपूर्ण व्रत है जो भगवान शिव को समर्पित है. यह व्रत हर महीने के कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि को किया जाता है. इस व्रत का धार्मिक महत्व अत्यंत गहरा है और इसे कई कारणों से रखा जाता है. भगवान शिव को प्रसन्न करने का यह एक शक्तिशाली साधन माना जाता है. प्रदोष व्रत करने से भगवान शिव की विशेष कृपा प्राप्त होती है. यह व्रत व्यक्ति के सभी पापों को नष्ट करने में सहायक माना जाता है और मनोकामनाओं की पूर्ति का एक शक्तिशाली माध्यम है.
ऐसी मान्यता है कि प्रदोष व्रत नियमित रूप से करने से लोगों को मोक्ष की प्राप्ति होती है और वैवाहिक जीवन सुखी रहता है. इसके अलावा यह व्रत आध्यात्मिक विकास में सहायक होता है और मन को शांत करता है. प्रदोष व्रत के मौके पर व्रत कथा का पाठ करना बहुत आवश्यक होता है, क्योंकि व्रत कथा बिना पूजा अधूरी मानी जाती है.
भादो का पहला प्रदोष व्रत शनिवार 31 अगस्त के दिन है, शनिवार के दिन इस व्रत के होने की वजह से इसे शनि प्रदोष व्रत कहा जाता है. त्रयोदशी तिथि 30 अगस्त की देर रात 2 बजकर 28 मिनट पर शुरू होगी और 31 अगस्त को देर रात 3.43 मिनट पर समाप्त होगी.
पूजा के समय सुनें ये व्रत कथा
पौराणिक कथा के अनुसार, एक निर्धन ब्राह्मण की स्त्री दरिद्रता से दुःखी होकर शांडिल्य ऋषि के पास जाकर बोली- हे महामुने! मैं अत्यन्त दुःखी हूं. दुःख निवारण का कोई उपाय बतलाइए. मेरे दोनों पुत्र आपकी शरण में हैं. मेरे ज्येष्ठ पुत्र का नाम धर्म है जो कि राजपुत्र है और लघु पुत्र का नाम शुचिव्रत है. अतः हम दरिद्री हैं, आप ही हमारा उद्धार कर सकते हैं, इतनी बात सुन ऋषि ने शिव प्रदोष व्रत करने के लिए कहा. तीनों प्राणी प्रदोष व्रत करने लगे.
कुछ समय बाद प्रदोष व्रत आया तब तीनों ने व्रत का संकल्प लिया. छोटा लड़का जिसका नाम शुचिव्रत था. एक तालाब पर स्नान करने को गया तो उसे मार्ग में स्वर्ण कलश धन से भरपूर मिला, उसको लेकर वह घर आया. प्रसन्न हो माता से कहा कि मां! यह धन मार्ग से प्राप्त हुआ है, माता ने धन देखकर शिव महिमा का वर्णन किया. राजपुत्र को अपने पास बुलाकर बोली देखो पुत्र, यह धन हमें शिवजी की कृपा से प्राप्त हुआ है. अतः प्रसाद के रूप में दोनों पुत्र आधा- आधा बांट लो, माता का वचन सुन राजपुत्र ने शिव-पार्वती का ध्यान किया और बोला पूज्य यह धन आपके पुत्र का ही है मैं इसका अधिकारी नहीं हूं.
मुझे शंकर भगवान और माता पार्वती जब देंगे तब लूंगा. इतना कहकर वह राजपुत्र शंकर जी की पूजा में लग गया, एक दिन दोनों भाईयों का प्रदेश भ्रमण का विचार हुआ, वहां उन्होंने अनेक गन्धर्व कन्याओं को क्रीड़ा करते हुए देखा, उन्हें देख शुचिव्रत ने कहा- भैया अब हमें इससे आगे नहीं जाना है, इतना कहकर शुचिव्रत उसी स्थान पर बैठ गया, परन्तु राजपुत्र अकेला ही स्त्रियों के बीच में जा पहुंचा. वहां एक स्त्री अति सुन्दरी राजकुमार को देख मोहित हो गई और राजपुत्र के पास पहुंचकर कहने लगी कि हे सखियों! इस वन के समीप ही जो दूसरा वन है तुम वहां जाकर देखो भांति-भांति के पुष्प खिले हैं.
बड़ा सुहावना समय है, उसकी शोभा देखकर आओ, मैं यहां बैठी हूं, मेरे पैर में बहुत पीड़ा है. ये सुन सब सखियां दूसरे वन में चली गयीं. वह अकेली सुन्दर राजकुमार की ओर देखती रही. इधर राजकुमार भी कामुक दृष्टि से निहारने लगा, युवती बोली- आप कहां रहते हैं? वन में कैसे पधारे? किस राजा के पुत्र हैं? क्या नाम है ? राजकुमार बोला- मैं विदर्भ नरेश का पुत्र हूं, आप अपना परिचय दें. युवती बोली- मैं विद्रविक नामक गन्धर्व की पुत्री हूं, मेरा नाम अंशुमति है मैंने आपकी मन स्थिति को जान लिया है कि आप मुझ पर मोहित हैं.
विधाता ने हमारा तुम्हारा संयोग मिलाया है. युवती ने मोतियों का हार राजकुमार के गले में डाल दिया. राजकुमार हार स्वीकार करते हुए बोला कि हे भद्रे मैंने आपका प्रेमोपहार स्वीकार कर लिया है, परन्तु मैं निर्धन हूं. राजकुमार के इन वचनों को सुनकर गन्धर्व कन्या बोली कि मैं जैसा कह चुकी हूं वैसा ही करूंगी, अब आप अपने घर जाएं इतना कहकर वह गन्धर्व कन्या सखियों से जा मिली. घर जाकर राजकुमार ने शुचिव्रत को सारा वृतांत कह सुनाया.
जब तीसरा दिन आया वह राजपुत्र शुचिव्रत को लेकर उसी वन में जा पहुंचा, वही गन्धर्व राज अपनी कन्या को लेकर आ पहुंचा. इन दोनों राजकुमारों को देख आसन दे कहा कि मैं कैलाश पर गया था वहाँ शंकर जी ने मुझसे कहा कि धर्मगुप्त नाम का राजपुत्र है जो इस समय राज्य विहीन निर्धन है, मेरा परम भक्त है, हे गन्धर्व राज! तुम उसकी सहायता करो, मैं महादेव जी की आज्ञा से इस कन्या को आपके पास लाया हूं. आप इसका निर्वाह करें, मैं आपकी सहायता कर आपको राजगद्दी पर बिठा दूंगा.
इस प्रकार गन्धर्व राज ने कन्या का विधिवत विवाह कर दिया. विशेष धन और सुन्दर गन्धर्व कन्या को पाकर राजपुत्र अति प्रसन्न हुआ. भगवत कृपा से वह समयोपरान्त अपने शत्रुओं को दमन करके राज्य का सुख भोगने लगा.
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