लेबनान में कैसे होता है चुनाव, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति देश चलाते हैं या चलता है हिजबुल्लाह का सिक्का

लेबनान मंगलवार को हुए पेजर ब्लास्ट के बाद एक बार फिर दुनियाभर में चर्चा का केंद्र बना हुआ है. इसकी सीमा में मौजूद ईरान समर्थित हिजबुल्लाह की ताकत ने लेबनान की लोकतांत्रिक सरकार पर सवाल खड़े कर दिए हैं. कहने को तो लेबनान में उदारवादी लोकतंत्र है, देश में लोग चुनाव में हिस्सा लेते हैं और वोट डालकर सरकार चुनते हैं. लेकिन बीते कुछ सालों में लेबनान की सियासी ताकत हिजबुल्लाह के हाथों में है.

हिजबुल्लाह एक शिया संगठन है, यह लेबनान का राजनीतिक और शक्तिशाली संगठन है. माना जाता है कि हिजबुल्लाह की स्थापना ईरान ने 1980 के दशक में इजराइल के खिलाफ किया था. साल 1992 से यह संगठन लेबनान के आम चुनाव में हिस्सा लेता रहा है जिससे इसकी राजनीतिक ताकत भी मजबूत हुई है.

लेबनान में कैसी है राजनीतिक व्यवस्था?

लेबनान में सरकार के शीर्ष पद अलग-अलग समुदायों के लिए आरक्षित हैं. जैसे राष्ट्रपति का पद मैरोनाइट कैथोलिक के लिए आरक्षित है तो वहीं प्रधानमंत्री का पद सुन्नी मुस्लिम और संसद का अध्यक्ष पद शिया मुस्लिम के लिए आरक्षित है. यही नहीं लेबनान में संसद के उपाध्यक्ष और उप प्रधान मंत्री का पद ग्रीक ऑर्थोडॉक्स ईसाई के लिए है और सेना के जनरल स्टाफ का पद ड्रूज के लिए. सीधे शब्दों में कहा जाए तो लेबनान का सरकारी तंत्र ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’ की तर्ज पर काम करता है.

हालांकि लेबनान की इस राजनीतिक व्यवस्था के पीछे फ्रांस का हाथ है, जो साल 1920 में लागू की गई थी. तब लेबनान फ्रांस के अधीन था. हैरानी की बात है कि यूरोप से सबसे सेक्युलर देशों में से एक फ्रांस ने लेबनान में एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था को जन्म दिया जो सिर्फ और सिर्फ धर्म पर आधारित थी.

लेबनान की आबादी में किसकी-कितनी हिस्सेदारी?

लेबनान की कुल आबादी करीब 53 लाख है, इसमें 67.8 फीसदी मुस्लिम हैं और करीब 32 फीसदी ईसाई हैं. इनमें मैरोनाइट कैथोलिक क्रिश्चंस की आबादी ज्यादा है और करीब 4.5 फीसदी ड्रूज हैं. मुस्लिम आबादी में शिया और सुन्नी लगभग बराबर हैं. इनमें शिया मुस्लिम 31.2 फीसदी हैं तो वहीं सुन्नी मुस्लिम 31.9 फीसदी हैं.

चुनाव में लोगों के पास सीमित विकल्प

लेबनान में नियमित तौर पर निष्पक्ष चुनाव होते हैं लेकिन लोगों के पास विकल्प सीमित होते हैं, उन्हें पहले से तय किए गए एक निश्चित समुदाय के व्यक्ति को ही चुनना होता है. सबसे बड़ी बात ये है कि लेबनान में भले ही राष्ट्रपति और संसदीय प्रणाली है लेकिन बीते 40 सालों से भी अधिक समय से सत्ता के शीर्ष पदों तक कुछ खास लोगों का कब्जा रहा है. कोई शासक या नेता अगर इजराइल के साथ बिना शर्त शांति कायम करना चाहता है तो उसे बर्खास्त कर दिया जाता है और हिजबुल्लाह के लड़ाकों से जानलेना हमले का डर भी होता है.

बात की जाए सरकार की ताकत की तो वह सिर्फ कागजों में ही सिमटी है. धर्म आधारित राजनीतिक व्यवस्था के चलते हिजबुल्लाह सरकार पर हावी रहा है. लेबनान में हिजबुल्लाह के पास न केवल राजनीतिक शक्ति है बल्कि इसकी अपनी सैन्य ताकत भी है. इसके पास मिसाइल-रॉकेट का जखीरा और हजारों लड़ाके हैं, जिनके जरिए यह लगातार इजराइल और अमेरिका को चुनौती देता रहा है.

हिजबुल्लाह चलाता है असली सरकार?

लेबनान में सत्ता पर काबिज लोगों के पास वास्तविक शक्ति नहीं होती है. एक तरह से कहा जा सकता है कि हिजबुल्लाह ही लेबनान की सरकार चलाता है. किसी सार्वजनिक पद पर न होते हुए भी लेबनान के लोगों की किस्मत का फैसला हिजबुल्लाह प्रमुख ही करते हैं.

हसन नसरल्लाह जो एक शिया धर्मगुरु हैं वो साल 1992 से इस संगठन की कमान संभाल रहे हैं. ईरान के सुप्रीम लीडर खामेनेई के साथ उनके घनिष्ठ संबंध हैं. लेबनान के सरकारी टेलीविजन पर हसन नसरल्लाह का संबोधन प्रसारित होता है, आम लोगों के साथ-साथ सत्ता के शीर्ष पर बैठे लेबनान के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति भी नसरल्लाह के संबोधन को सुनते हैं और उसी के अनुसार लेबनान सरकार की नीतियां तैयार करते हैं.

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